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प्रेमचन्द की कहानियाँ 15

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9776
आईएसबीएन :9781613015131

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पन्द्रहवाँ भाग


सारा दिन गुजर गया और धेले की बिक्री न हुई। आखिर हारकर उसने दुकान बंद कर दी और घर चला आया।

दूसरे दिन प्रात:काल बायकाट-कमेटी ने एक स्वयंसेवक द्वारा उसे सूचना दे दी कि कमेटी ने उसे 101/- का दंड दिया है।

छकौड़ी इतना जानता था कि काँग्रेस की शक्ति के सामने वह सर्वथा अशक्त है। उसकी जबान से जो धमकी निकल गयी, उस पर उसे घोर पश्चात्ताप हुआ; लेकिन तीर कमान से निकल चुका था। दुकान खोलना व्यर्थ था। वह जानता था, उसकी धेले की भी बिक्री न होगी। 101/- देना उसके बूते से बाहर की बात थी! दो-तीन दिन चुपचाप बैठा रहा। एक दिन रात को दुकान खोलकर सारी गाँठें घर उठा लाया और चुपके-चुपके बेचने लगा। पैसे की चीज धेले में लुटा रहा था और वह भी उधार! जीने के लिए कुछ आधार तो चाहिए!

मगर उसकी यह चाल भी काँग्रेस से छिपी न रही। चौथे ही दिन गोइंदों ने काँग्रेस को खबर पहुँचा दी। उसी दिन तीसरे पहर छकौड़ी के घर की पिकेटिंग शुरू हो गयी। अबकी सिर्फ पिकेटिंग शुरू न थी, स्यापा भी था। पाँच-छ: स्वयंसेविकाएँ और इतने ही स्वयंसेवक द्वार पर स्यापा करने लगे।

छकौड़ी आँगन में सिर झुकाये खड़ा था। कुछ अक्ल काम न करती थी, इस विपत्ति को कैसे टाले। रोगिणी स्त्री सायबान में लेटी हुई थी, वृद्धा माता उसके सिरहाने बैठी पंखा झल रही थी और बच्चे बाहर स्यापे का आनंद उठा रहे थे।

स्त्री ने कहा- इन सबसे पूछते नहीं, खायें क्या?

छकौड़ी बोला- किससे पूछूँ, जब कोई सुने भी!

'जाकर काँग्रेसवालों से कहो, हमारे लिए कुछ इंतजाम कर दें, हम अभी कपड़े को जला देंगे। ज्यादा नहीं, 25/- महीना दे दें।'

'वहाँ भी कोई न सुनेगा।'

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