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प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9777
आईएसबीएन :9781613015148

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सोलहवाँ भाग


गोपीनाथ ने निश्चय कर लिया, मैं जाति-सेवा में जीवनक्षेप करूँगा। अमरनाथ ने भी यही फैसला किया कि मैं म्युनिसिपैलिटी में अवश्य जाऊँगा। दोनों का परस्परविरोध उन्हें कर्म क्षेत्र की ओर खींच ले गया। गोपीनाथ की साख पहले ही जम गई थी। घर के धनी थे। शक्कर और सोने-चाँदी की दलाली होती थी। व्यापारियों में उनके पिता का बड़ा मान था। गोपीनाथ के दो बड़े भाई थे। वे भी दलाली करते थे। परस्पर मेल था, धन था, संतानें थी। अगर न थी, तो शिक्षा और शिक्षित समुदाए में गणना। वह बात गोपीनाथ की बदौलत प्राप्त हो गई। इसलिए उनकी स्वच्छंदता पर किसी ने आपत्ति नहीं की, किसी ने उन्हें धनोपार्जन के लिए मजबूर नहीं किया। अतएव गोपीनाथ निश्चिंत और निर्द्वंद्व होकर राष्ट्रीय सेवा में निरत हो गए। कहीं किसी अनाथालय के लिए चंदा जमा करते, कहीं किसी कन्या-पाठाशाला के लिए भिक्षा माँगते फिरते। नगर की काँग्रेस-कमेटी ने उन्हें अपना मंत्री नियुक्त किया। उस समय तक कांग्रेस ने कर्म-क्षेत्र में पदार्पण नहीं किया था। उनकी कार्यशीलता ने इस जीर्ण संस्था का मानो पुनरुद्धार कर दिया। वह प्रातः से संध्या और बहुधा  पहर रात तक इन्हीं कामों में लिप्त रहते थे। चंदे का रजिस्टर हाथ में लिये उन्हें नित्यप्रति साँझ-सबेरे अमीरों और रईसों के द्वार पर खड़े देखना एक साधारण  दृश्य था। धीरे-धीरे कितने ही युवक उनके भक्त हो गए। लोग कहते, कितना निःस्वार्थ, कितना आदर्शवादी, त्यागी, जाति-सेवक है। कौन सुबह से शाम तक निःस्वार्थ भाव से केवल जनता का उपकार करने के लिए यों दौड़-धूप करेगा?

उनका आत्मोत्सर्ग प्रायः द्वेषियों को भी अनुरक्त कर देता था। उन्हें बहुधा रईसों की अभद्रता, असज्जनता, यहाँ तक कि उनके कटु शब्द भी सहने पड़ते थे। उन्हें अब विदित होता जाता था कि जाति सेवा बड़े अंशों तक केवल चंदे माँगना है। इसके  लिए धनिकों की दरबारदारी या दूसरे शब्दों में खुशामद भी करनी पड़ती थी। दर्शन के उस गौरव-युक्त अध्ययन और इस दान-लोलुपता में कितना अन्तर था! कहाँ मिल और केंट, स्पेन्सर और किड के साथ एकान्त में बैठे हुए जीव और प्रकृति के गहन, गूढ़ विषय पर वार्तालाप, और कहाँ इन अभिमानी, असभ्य, मूर्ख व्यापारियों के सामने सिर झुकाना! वह अंतःकरण में उनसे घृणा करते थे। ये लोग धनी थे, केवल धन कमाना चाहते थे। इसके अतिरिक्त उनमें और कोई विशेष गुण न था। इनमें अधिकांश ऐसे थे, जिन्होंने कपट-व्यापार से धनोपार्जन किया था। पर गोपीनाथ के लिए वे सभी पूज्य थे, क्योंकि उन्हीं की कृपादृष्टि पर उनकी राष्ट्र-सेवा अवलम्बित थी।

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