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प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9777
आईएसबीएन :9781613015148

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सोलहवाँ भाग


मालिन ने चौंक कर देखा और पहचान गई। रोकर बोली- बेटा, अब बताओ मेरा कहाँ ठिकाना लगे? तुमने मेरा बना-बनाया घर उजाड़ दिया न उस दिन तुमसे बात करती, न मुझ पर यह बिपत पड़ती। बाई ने तुम्हें बैठे देख लिया, बातें भी सुनी। सुबह होते ही मुझे बुलाया और बरस पड़ी, नाक कटवा लूंगी, मुंह में कालिख लगवा दूंगी, चुड़ैल, कुटनी, तू मेरी बात किसी गै़र आदमी से क्यों चलाये? तू दूसरों से मेरी चर्चा करे? वह क्या तेरा दामाद था, जो तू उससे मेरा दुखड़ा रोती थी? जो कुछ मुँह में आया बकती रही। मुझसे भी न सहा गया। रानी रुठेंगी अपना सुहाग लेंगी! बोली- बाई जी, मुझसे कसूर हुआ, लीजिए अब जाती हूँ। छींकते नाक कटती है तो मेरा निबाह यहाँ न होगा। ईश्वर ने मुंह दिया हैं तो आहार भी देगा। चार घर से मांगूंगी तो पेट को हो जाऐगा। उस छोकरी ने मुझे खड़े-खड़े निकलवा दिया। बताओ, मैंने तुमसे उसकी कौन सी शिकायत की थी? उसकी क्या चर्चा की थी? मैं तो उसका बखान कर रही थी। मगर बड़े आदमियों का गुस्सा भी बड़ा होता है। अब बताओ, मैं किसकी होकर रहूँ? आठ दिन इसी तरह टुकड़े मांगते हो गये हैं। एक भतीजी उन्हीं के यहाँ लौंडियों में नौकर थी, उसी दिन उसे भी निकाल दिया। तुम्हारी बदौलत, जो कभी न किया था, वह करना पड़ा। तुम्हें कहाँ का दोष लगाऊं, किस्मत में जो कुछ लिखा था, देखना पड़ा।

मगनदास सन्नाटे में आ गया। आह मिजाज का यह हाल है, यह घमण्ड, यह शान! मालिन का इत्मीनन दिलाया उसके पास अगर दौलत होती तो उसे मालामाल कर देता। सेठ मक्खनलाल की बेटी को भी मालूम हो जाता कि रोज़ी की कुंजी उसी के हाथ में नहीं है। बोला- तुम फ़िक्र न करो, मेरे घर में आराम से रहो अकेले मेरा जी भी नहीं लगता। सच कहो तो मुझे तुम्हारी तरह एक औरत की तलाश थी, अच्छा हुआ तुम आ गईं।

मालिन ने आँचल फैलाकर असीम आशीर्वाद दिया- बेटा तुम जुग-जुग जियो, बड़ी उम्र हो, यहाँ कोई घर मिले तो मुझे दिलवा दो। मैं यहाँ रहूंगी तो मेरी भतीजी कहाँ जाएगी। वह बेचारी शहर में किसके आसरे रहेगी। मगनलाल के ख़ून में जोश आया। उसके स्वाभिमान को चोट लगी। उन पर यह आफ़त मेरी लाई हुई है। उनकी इस आवारागर्दी का ज़िम्मेदार मैं हूँ। बोला- कोई हर्ज़ न हो तो उसे भी यहीं ले आओ। मैं दिन को यहाँ बहुत कम रहता हूँ। रात को बाहर चारपाई डालकर पड़ रहा करूंगा। मेरी वजह से तुम लोगों को कोई तकलीफ़ न होगी। यहाँ दूसरा मकान मिलना मुश्किल है। यही झोपड़ा बड़ी मुश्किलों से मिला है। यह अंधेरनगरी है। जब तुम्हारा सुभीता कहीं लग जाय तो चली जाना। मगनदास को क्या मालूम था कि हजरते इश्क उसकी जबान पर बैठे हुए उससे यह बात कहला रहे हैं। क्या यह ठीक है कि इश्क पहले माशूक के दिल में पैदा होता है?

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