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प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9778
आईएसबीएन :9781613015155

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग


तो विनीत भाव से कहता- 'क्षमा कीजिए, यह मेरे सिस्टम को सूट नहीं करती। सिद्धांत के बदले अब मुझे शारीरिक असमर्थता का बहाना करना पड़ा। वह सत्याग्रह का जोश, जिसने पिता की बोतल पर हाथ साफ किया था, गायब हो गया था। यहाँ तक कि एक बार जब कालेज के चौथे वर्ष में मेरे लड़का पैदा होने की खबर मिली, तो मेरी उदारता की हद हो गयी। मैंने मित्रों के आग्रह से मजबूर होकर उनकी दावत की और अपने हाथों से ढाल-ढालकर उन्हें पिलायी। उस दिन साकी बनने में हार्दिक आनंद मिल रहा था। उदारता वास्तव में सिद्धान्त से गिर जाने, आदर्श से च्युत हो जाने का ही दूसरा नाम है। अपने मन को समझाने के लिए युक्तियों का अभाव कभी नहीं होता। संसार में सबसे आसान काम अपने को धोखा देना है। मैंने खुद तो नहीं पी, पिला दी, इसमें मेरा क्या नुकसान? दोस्तों की दिलशिकनी तो नहीं की? मजा तो जभी है कि दूसरों को पिलाये और खुद न पिये।

खैर, कालेज से मैं बेदाग निकल आया। अपने शहर में वकालत शुरू की। सुबह से आधी रात तक चक्की में जुतना पड़ा। वे कालेज के सैर-सपाटे, आमोद-विनोद, सब स्वप्न हो गये। मित्रों की आमदरफ्त बंद हुई, यहाँ तक कि छुट्टियों में भी दम मारने की फुरसत न मिलती। जीवन-संग्राम कितना विकट है, इसका अनुभव हुआ। इसे संग्राम कहना ही भ्रम है। संग्राम की उमंग, उत्तेजना, वीरता और जय-ध्वनि यहाँ कहाँ? यह संग्राम नहीं, ठेलम-ठेल, धक्का-पेल है। यहाँ 'चाहे धक्के खायँ, मगर तमाशा घुसकर देखें' की दशा है। माशूक का वस्ल कहाँ, उसकी चौखट को चूमना, दरबान की गालियाँ खाना और अपना-सा मुँह लेकर चले आना। दिन-भर बैठे-बैठे अरुचि हो जाती। मुश्किल से दो चपातियाँ खाता और मन में कहता- 'क्या इन्हीं दो चपातियों के लिए यह सिर-मग्जन और यह दीदा-रेजी है? मरो, खपो और व्यर्थ के लिए! इसके साथ यह अरमान भी था कि अपनी मोटर हो, विशाल भवन हो, थोड़ी-सी जमींदारी हो, कुछ रुपये बैंक में हों; पर यह सब हुआ भी, तो मुझे क्या? संतान उनका सुख भोगेगी, मैं तो व्यर्थ ही मरा। मैं तो खजाने का साँप ही रहा। नहीं, यह नहीं हो सकता। मैं दूसरों के लिए ही प्राण न दूँगा, अपनी मिहनत का मजा खुद भी चखूँगा। क्या करूँ? कहीं सैर करने चलूँ? मुवक्किल सब तितर-बितर हो जायँगे ! ऐसा नामी वकील तो हूँ नहीं कि मेरे बगैर काम ही न चले और कतिपय नेताओं की भाँति असहयोग-व्रत धारण करने पर भी कोई बड़ा शिकार देखूँ, तो झपट पड़ूँ। यहाँ तो पिद्दी, बटेर, हारिल इन्हीं सब पर निशाना मारना है। फिर क्या रोज थियेटर जाया करूँ? फिजूल है। कहीं दो बजे रात को सोना नसीब होगा, बिना मौत मर जाऊँगा। आखिर मेरे हमपेशा और भी तो हैं? वे क्या करते हैं जो उन्हें बराबर खुश और मस्त देखता हूँ? मालूम होता है, उन्हें कोई चिंता ही नहीं है। स्वार्थ-सेवा अंग्रेजी शिक्षा का प्राण है। पूर्व संतान के लिए, यश के लिए, धर्म के लिए मरता है, पश्चिम अपने लिए। पूर्व में घर का स्वामी सबका सेवक होता है, वह सबसे ज्यादा काम करता, दूसरों को खिलाकर खाता, दूसरों को पहना कर पहनता है; किंतु पश्चिम में वह सबसे अच्छा खाना, अच्छा पहनना अपना अधिकार समझता है। यहाँ परिवार सर्वोपरि है, वहाँ व्यक्ति सर्वोपरि है। हम बाहर से पूर्व और भीतर से पश्चिम हैं। हमारे सत् आदर्श दिन-दिन लुप्त होते जा रहे हैं।

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