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प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9778
आईएसबीएन :9781613015155

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग


लगभग एक मील तक यह दौड़ रही। वह तो कहो मैं कसरती आदमी हूँ, बचकर निकल आया, नहीं मेरी न जाने और क्या दुर्गति होती। शायद मुझे गधे पर बिठाकर घुमाना चाहते थे। जब सब पीछे रह गये तो मैं एक नाले के किनारे बेदम होकर बैठा रहा। अब मुझे सूझी कि यहाँ कोई आया तो पत्थरों से मारे बिना न छोड़ूँगा, चाहे उलटी पड़े या सीधी; किन्तु मैंने नाले में मुँह धोने की चेष्टा नहीं की। जानता था, पानी से यह कालिमा न छूटेगी। यही सोचता रहा कि इस अँगरेज पर कैसे अभियोग चलाऊँ? यह तो छिपाना ही पड़ेगा कि मैंने इसके खानसामा से चोरी की शराब ली। अगर यह बात साबित हो गयी, उलटा मैं ही फँस जाऊँगा। क्या हरज है, इतना छिपा दूँगा। शत्रुता का कारण कुछ और ही दिखा दूँगा; पर मुकदमा जरूर चलाना चाहिए।

जाऊँ कहाँ? यह कालिमा-मंडित मुँह किसे दिखाऊँ ! हाय ! बदमाश को कालिख ही लगानी थी, तो क्या तवे में कालिख न थी, लैम्प में कालिख न थी ! कम-से-कम छूट तो जाती। जितना अपमान हुआ है, वहीं तक रहता। अब तो मैं मानो अपने कुकृत्य का स्वयं ढिंढोरा पीट रहा हूँ। दूसरा होता, तो इतनी दुर्गति पर डूब मरता !

गनीमत यही थी कि अभी तक रास्ते में किसी से मुलाकात नहीं हुई थी; नहीं तो उसे कालिमा सम्बन्धी प्रश्नों का क्या उत्तर देता? जब जरा थकन कम हुई, तो मैंने सोचा, यहाँ कब तक बैठा रहूँगा। लाओ, एक बार यत्न करके देखूँ तो, शायद स्याही छूट जाय। मैंने बालू से मुँह रगड़ना शुरू किया। देखा तो स्याही छूट रही थी। उस समय मुझे जितना आनन्द हुआ, उसकी कौन कल्पना कर सकता है। फिर तो मेरा हौसला बढ़ा। मैंने मुँह को इतना रगड़ा कि कई जगह चमड़ा तक छिल गया; किंतु वह कालिमा छुड़ाने के लिए मुझे इस समय बड़ी-से-बड़ी पीड़ा भी तुच्छ जान पड़ती थी। यद्यपि मैं नंगे सिर था, केवल कुर्ता और धोती पहने हुए था, पर यह कोई अपमान की बात नहीं। गाउन, अचकन, पगड़ी डाक-बँगले ही में रह गयी, इसकी मुझे चिंता न थी। कालिख तो छूट गयी।

लेकिन कालिमा छूट जाती है, पर उसका दाग दिल से कभी नहीं मिटता। इस घटना को आज बहुत दिन हो गये। पूरे पाँच साल हुए, मैंने शराब का नाम नहीं लिया, पीने की कौन कहे। कदाचित् मुझे सन्मार्ग पर लाने के लिए यह ईश्वरीय विधान था। कोई युक्ति, कोई तर्क, कोई चुटकी मुझ पर इतना स्थायी प्रभाव न डाल सकती थी। सुफल को देखते हुए तो मैं यही कहूँगा कि जो कुछ हुआ बहुत अच्छा हुआ। वही होना चाहिए था; पर उस समय दिल पर जो गुजरी थी, उसे याद करके आज भी नींद उचट जाती है।

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