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प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9778
आईएसबीएन :9781613015155

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग


दयाशंकर- ''बंधुवर, दो मिनट और संतोष करो, आया। हाँ, लाला ज्योतिस्वरूप से कह दो कि किसी हलवाई की दुकान से पूरियाँ ले आवें। यहाँ कम पड़ गई हैं। आज दोपहर ही से इनकी तबीयत खराब हो गई है। मेरे मेज की दराज में रुपये रखे हुए हैं।''

सेवती- ''साफ़-साफ़ तो यही है कि तुम्हारे पर्दे ने मुझे पंगु बना दिया है। कोई मेरा गला भी घोंट जाए, तो फ़रियाद नहीं कर सकती।''

दयाशंकर- ''फिर भी वही अन्योक्ति! इस विषय का अंत भी होगा या नहीं।''

सेवती- ''दियासलाई तो थी ही नहीं, फिर आग कैसे जलाती!''

दयाशंकर- ''अहा! मैंने जाते समय दियासलाई की, डिबिया जेब में रख ली थी. ज़रा-सी बात का तुमने इतना बतंगड़ बना दिया। शायद मुझे तंग करने के लिए अवसर ढूँढ रही थीं। कम-से-कम मुझे तो ऐसा ही जान पड़ता है।''

सेवती- ''यह तुम्हारी ज्यादती है। ज्यों ही तुम सीढ़ी से उतरे, मेरी दृष्टि डिबिया पर पड़ गई, किंतु वह लापता थी। ताड़ गई कि तुम ले गए। तुम मुश्किल से दरवाजे तक पहुँचे होगे। अगर जोर से पुकारती, तो तुम सुन लेते लेकिन नीचे दुकानदारों के कान में भी आवाज़ जाती, तो सुनकर तुम न जाने मेरी कौन-कौन दुर्दशा करते। हाथ मलकर रह गई। उसी समय से बहुत व्याकुल हो रही हूँ कि किसी प्रकार भी दियासलाई मिल जाती, तो अच्छा होता। मगर कोई वश न चला। अंत में लाचार होकर बैठ रही।''

दयाशंकर- ''यह कहो कि तुम मुझे तंग करना चाहती थीं। नहीं तो, क्या आग या दियासलाई न मिल जाती?''

सेवती- ''अच्छा, तुम मेरी जगह होते, तो क्या करते? नीचे सब-के-सब दुकानदार और तुम्हारी जान-पहचान के हैं। घर के एक ओर पंडितजी रहते हैं। इनके घर में कोई स्त्री नहीं। सारे दिन फाग हुई है, बाहर के सैकड़ों आदमी जमा थे; दूसरी ओर बंगाली बाबू रहते हैं। उनके घर की स्त्रियाँ किसी संबंधी से मिलने गई हैं और अब तक नहीं आईं। इन दोनों घरों से भी बिना छज्जे पर आए चीज़ न मिल सकती थी। लेकिन शायद तुम इतनी बेपर्दगी को क्षमा न करते और कौन ऐसा था, जिससे कहती कि कहीं से आग ला दो। महरी तुम्हारे सामने ही चौका-बर्तन करके चली गई थी। रह-रहकर तुम्हारे ही ऊपर क्रोध आता था।

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