कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 17 प्रेमचन्द की कहानियाँ 17प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग
दयाशंकर- ''नहीं भाई, इसका फ़ैसला तुम्हारी बुद्धि पर निर्भर है।''
आनंदमोहन- ''मित्र, संतोष की सीमा तो हो गई; अब प्राणपीड़ा हो रही है। ईश्वर करे, घर आबाद रहे; बिदा होता हूँ।''
दयाशंकर- ''बस, एक मिनट और। उपस्थित हुआ।''
सेवती- ''चटनी, और पानी लेते जाओ और पूरियाँ बाजार से मँगवा लो। इसके सिवा इस समय हो ही क्या सकता है।''
दयाशंकर- (मरदाने कमरे में आकर) ''पानी लाया हूँ प्यालियों में चटनी है, आप लोग जब तक भोग लगावें। मैं अभी आता हूँ।''
आनंदमोहन- ''धन्य है ईश्वर! भला तुम बाहर तो निकले। मैंने तो समझा था कि एकांत-वास करने लगे, मगर निकले भी तो चटनियाँ लेकर। वे स्वादिष्ट वस्तुएँ क्या हुई, जिनका आपने वादा किया था और जिनका स्मरण मैं प्रेमानुरक्त भाव से कर रहा हूँ।''
दयाशंकर- ''ज्योतिस्वरूप कहाँ गए?''
आनंदमोहन- ''ऊर्ध्व संसार में भ्रमण कर रहे हैं। बड़ा ही अद्भुत उदासीन मनुष्य है कि आते-ही-आते सो गया और अभी तक नहीं चौंका।''
दयाशंकर- ''मेरे यहाँ एक दुर्घटना हो गई। उसे और क्या कहूँ। सब सामान मौजूद और चूल्हे में आग न जली।''
आनंदमोहन- ''खूब? यह एक ही रही। लकड़ियाँ न रही होंगी।''
सेवती- ''घर में तो लकड़ियों का पहाड़ लगा है। अभी थोड़े ही दिन हुए कि गाँव से एक गाड़ी लकड़ी आ गई थी। दियासलाई न थी।''
आनंदमोहन (अट्टहास कर) ''वाह! यह अच्छा प्रहसन हुआ। थोड़ी-सी भूल ने सारा स्वप्न ही नष्ट कर दिया। कम-से-कम मेरी तो बधिया बैठ गई।''
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