कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 17 प्रेमचन्द की कहानियाँ 17प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग
गिन्नियाँ संदूक में रख दीं। खा-पीकर लेटे तो भामा ने हँसकर कहा– आया धन क्यों छोड़ते हो, लाओ मैं अपने लिए एक गुलूबंद बनवा लूँ, बहुत दिनों से जी तरस रहा है।
माया ने इस समय हास्य का रूप धारण किया था।
ब्रजनाथ ने तिरस्कार करके कहा– गुलूबंद की लालसा में गले में फाँसी लगाना चाहती हो क्या?
प्रात:काल ब्रजनाथ थाने चलने के लिए प्रस्तुत हुए। कानून का एक लेक्चर छूट जायगा, कोई हरज नहीं। वे इलाहाबाद के हाईकोर्ट में अनुवादक थे। नौकरी में उन्नति की आशा देखकर साल-भर से वकालत की तैयारी में मग्न थे। लेकिन अभी कपड़े पहन ही रहे थे कि एक मित्र, मुंशी गोरेलाल आकर बैठ गए और अपनी पारिवारिक दुश्चिन्ताओं की विस्तृत राम-कहानी सुनाकर अत्यन्त विनय भाव से बोले– भाई साहब, इस समय मैं अपने झंझटों में ऐसा फँस गया हूँ कि बुद्धि कुछ काम नहीं करती। तुम बड़े आदमी हो। इस समय कुछ सहायता करो। ज्यादा नहीं, तीस रुपये दे दो। किसी-न-किसी तरह काम चला लूँगा। आज ता० 30 है। कल शाम को तुम्हें रुपये मिल जायँगे।
ब्रजनाथ बड़े आदमी तो न थे, किन्तु बड़प्पन की हवा बांध रखी थी। यह मिथ्याभिमान उनके स्वभाव की एक दुर्बलता थी। केवल अपने वैभव का प्रभाव डालने के लिए ही बहुधा मित्रों की छोटी-मोटी आवश्यकताओं पर अपनी वास्तविक आवश्यकताओं को अर्पण कर दिया करते थे। लेकिन भामा तो इस आत्मत्याग को व्यर्थ समझती थी। इसलिए जब ब्रजनाथ पर इस प्रकार का संकट पड़ता था, तब थोड़ी देर के लिए उनकी पारिवारिक शान्ति अवश्य भंग हो जाती थी। उनमें इनकार या टालने की हिम्मत न थी।
वे कुछ सकुचाते हुए भामा के पास गये और बोले– तुम्हारे पास तीस रुपये तो न होंगे? मुंशी गोरेलाल माँग रहे हैं।
भामा ने रुखाई से कहा– मेरे पास रुपये नहीं है।
ब्रजनाथ– होंगे तो जरूर, बहाना करती हो।
भामा– अच्छा, बहाना ही सही।
ब्रजनाथ– तो मैं उनसे क्या कह दूँ?
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