कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 17 प्रेमचन्द की कहानियाँ 17प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग
सात बजे। चिराग जल गए। सड़क पर अंधेरा छाने लगा। ब्रजनाथ सड़क पर उद्विग्न भाव से टहलने लगे। इरादा हुआ, गोरेलाल के घर चलूँ। उधर कदम बढ़ाए। लेकिन हृदय काँप रहा था कि कहीं वे रास्ते में आते हुए मिल जायँ, तो समझेंगे कि थोड़े से रुपये के लिए इतने व्याकुल हो गए। थोड़ी ही दूर गये कि किसी को आते देखा। भ्रम हुआ, गोरेलाल हैं, मुड़े और सीधे बरामदे में आकर दम लिया। लेकिन फिर वहीं धोखा! फिर वही भ्रान्ति! तब सोचने लगे कि इतनी देर क्यों हो रही है। क्या अभी तक वे कचहरी से न आये होंगे? ऐसा कदापि नहीं हो सकता। उनके दफ्तर वाले मुद्दत हुई, निकल गये। बस, दो बातें हो सकती हैं। या तो उन्होंने कल आने का निश्चय कर लिया, समझें होंगे कि रात को कौन जाय या जान-बूझकर बैठे रहे होंगे; देना न चाहते होंगे। उस समय उनकी गरज थी, इस समय मेरी गरज है। मैं ही किसी को क्यों न भेज दूँ, लेकिन किसे भेजूँ? मन्नू जा सकता है। सड़क ही पर मकान है। यह सोचकर कमरे में गये। लैम्प जलाया और पत्र लिखने बैठे, मगर आँखें द्वार ही की ओर लगी हुई थीं। अकस्मात् किसी के पैर की आहट सुनाई दी। तुरन्त पत्र को एक किताब के नीचे दबा लिया और बरामदे में चले आये। देखा तो पड़ोस का कुँजड़ा है, तार पढ़ाने आया है। उससे बोले– भाई, इस समय फुरसत नहीं है, थोड़ी देर में आना।
उसने कहा– बाबूजी, घर-भर के प्राणी घबराए हैं, जरा एक निगाह देख लीजिए।
निदान ब्रजनाथ ने झुँझलाकर उसके हाथ से तार ले लिया और सरसरी दृष्टि से देखकर बोले– कलकत्ते से आया है, माल नहीं पहुँचा।
कुँजड़े ने डरते-डरते कहा– बाबूजी, इतना और देख लीजिए कि किसने भेजा है।
इस पर ब्रजनाथ ने तार को फेंक दिया और बोले– मुझे इस वक्त फुरसत नहीं है।
आठ बज गए। ब्रजनाथ को निराशा होने लगी। मन्नू इतनी रात बीते नहीं जा सकता। मन में निश्चय किया, मुझे आप ही जाना चाहिए; बला से बुरा मानेंगे। इसकी कहाँ तक चिंता करूँ? स्पष्ट कह दूँगा, मेरे रुपये दे दो। भलमनसी भलेमानसों से निभायी जा सकती हैं। ऐसे धूर्तों के साथ भलमनसी का व्यवहार करना मूर्खता है। अचकन पहनी। घर में जाकर भामा से कहा– जरा एक काम से बाहर जाता हूँ, किवाड़ बन्द कर लो।
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