कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 17 प्रेमचन्द की कहानियाँ 17प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग
चलने को तो चले, लेकिन पग-पग पर रुकते जाते थे। गोरेलाल का घर दूर से दिखाई दिया; लैम्प जल रहा था। ठिठक गए और सोचने लगे– चल कर क्या कहूँगा। कहीं उन्होंने जाते-जाते रुपये निकालकर दे दिये और देरी के लिए क्षमा माँगी, तो मुझे बड़ी झेंप होगी। वे मुझे क्षुद्र, ओछा, धैर्यहीन समझेंगे। नहीं, रुपये की बातचीत करूँ ही क्यों? कहूँगा, भाई घर में बड़ी देर से पेट दर्द कर रहा है, तुम्हारे पास पुराना तेज सिरका तो नहीं है। मगर नहीं, यह बहाना कुछ भद्दा-सा प्रतीत होता है। साफ कलई खुल जाएगी। उँह! इस झंझट की जरूरत ही क्या है? वे मुझे देखकर खुद ही समझ जाएँगे। इस विषय में बातचीत की कुछ नौबत ही न आएगी। ब्रजनाथ इसी उधेड़बुन में आगे चले जाते थे, जैसे नदी की लहरें चाहे किसी ओर चलें, धारा अपना मार्ग नहीं छोड़ती।
गोरेलाल का घर आ गया। द्वार बन्द था। ब्रजनाथ को उन्हें पुकारने का साहस न हुआ। समझे, खाना खा रहे होंगे। दरवाजे के सामने से निकले और धीरे-धीरे टहलते हुए एक मील तक चले गये। नौ बजने की आवाज कान में आयी। गोरेलाल भोजन कर चुके होंगे, यह सोचकर लौट पड़े। लेकिन द्वार पर पहुँचे तो अंधेरा था। वह आशारूपी दीपक बुझ गया था। एक मिनट तक दुविधा में खड़े रहे। क्या करूँ? हाँ, अभी बहुत सबेरा है। इतनी जल्दी थोड़े ही सो गए होंगे। दबे पाँव बरामदे पर चढ़े। द्वार पर कान लगाकर सुना, चारों ओर ताक रहे थे कि कहीं कोई देख न ले। कुछ बातचीत की भनक कान में पड़ी। ध्यान से सुना।
स्त्री कह रही थी– रुपये तो सब उठ गए, ब्रजनाथ को कहाँ से दोगे?
गोरेलाल ने उत्तर दिया– ऐसी कौन-सी उतावली है, फिर दे देंगे? आज दरखास्त दे दी है। कल मंजूर हो जाएगी, तीन महीने के बाद लौटेंगे तो देखा जाएगा।
ब्रजनाथ को ऐसा जान पड़ा, मानो मुँह पर किसी ने तमाचा मार दिया। क्रोध और नैराश्य से भरे हुए बरामदे से उत्तर आए। घर चले तो सीधे कदम न पड़ते थे, जैसे दिन-भर का थका-माँदा पथिक।
ब्रजनाथ रात-भर करवटें बदलते रहे। कभी गोरेलाल की धूर्त्तता पर क्रोध आता था। कभी अपनी सरलता पर क्रोध होता था। मालूम नहीं किस गरीब के रुपये हैं, उस पर क्या बीती होगी। लेकिन अब क्रोध या खेद से क्या लाभ? सोचने लगे– रुपये कहाँ से आएँगे; भामा पहले ही इनकार कर चुकी है, वेतन में इतनी गुंजायश नहीं; दस-पाँच रुपये की बात होती तो कोई कतर-ब्योंत भी करता। तो क्या करूँ, किसी से उधार लूँ? मगर मुझे कौन देगा? आज तक किसी से माँगने का संयोग नहीं पड़ा और अपना कोई ऐसा मित्र है भी तो नहीं! जो लोग हैं, मुझी को सताया करते हैं, मुझे क्या देंगे। हाँ, यदि कुछ कानून छोड़कर अनुवाद करने में परिश्रम करूँ, तो रुपये मिल सकते हैं। कम-से-कम एक मास का कठिन परिश्रम है। सस्ते अनुवादकों के मारे दर भी तो गिर गई। हा निर्दयी! तूने बड़ा दगा किया। न जाने, किस जन्म का बैर चुकाया। कहीं का न रखा!
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