कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 17 प्रेमचन्द की कहानियाँ 17प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग
भामा उठ बैठी। उसकी आँखों में निर्मल भक्ति का आभास झलक रहा था। मुखमंडल से पवित्र प्रेम बरसा पड़ता था। देवी ने कदाचित् उसे अपनी प्रभा के रंग में डुबा दिया था।
इतने में दूसरी एक स्त्री आयी। उसके उज्ज्वल केश बिखरे और मुरझाएँ हुए चेहरे के दोनों ओर लटक रहे थे। शरीर पर केवल एक श्वेत साड़ी थी। हाथ में चूड़ियों के सिवा और कोई आभूषण न था। शोक और नैराश्य की साक्षात् मूर्ति मालूम होती थी। उसने भी देवी के सामने सिर झुकाया और दोनों हाथों से आँचल फैलाकर बोली– देवी, जिसने मेरा धन लिया हो, उसका सर्वनाश करो।
जैसे सितार मिजराब की चोट खाकर थरथरा उठता है, उसी प्रकार भामा का हृदय अनिष्ट के भय से थरथरा उठा। ये शब्द तीव्र शर के समान उसके कलेजे में चुभ गए। उसने देवी की ओर कातर नेत्रों से देखा। उसका ज्योतिर्मय स्वरूप भयंकर था और नेत्रों से भीषण ज्वाला निकल रही थी। भामा के अंत:करण में सर्वत्र आकाश से, मन्दिर के सामने वाले वृक्षों से, मन्दिर के स्तम्भों से, सिंहासन के जलते हुए दीपक से और देवी के विकराल मुँह से ये शब्द निकलकर गूँजने लगे– पराया धन लौटा दे, नहीं तो तेरा सर्वनाश हो जाएगा।
भामा खड़ी हो गई और उस वृद्धा से बोली– क्यों माता! तुम्हारा धन किसी ने ले लिया है?
वृद्धा ने इस प्रकार उसकी ओर देखा, मानो डूबते को तिनके का सहारा मिला। बोली– हाँ बेटी।
‘कितने दिन हुए?’
‘कोई डेढ़ महीना।’
‘कितने रुपये थे?’
‘पूरे एक सौ बीस।’
‘कैसे खोए?’
‘क्या जाने, कहीं गिर गए। मेरे स्वामी पल्टन में नौकर थे, आज कई बरस हुए, वे परलोक सिधारे। अब मुझे सरकार से 60 रु. साल पेंशन मिलती है। अबकी दो साल की पेंशन एक साथ मिली थी। खजाने से रुपये लेकर आ रही थी। मालूम नहीं, कब और कहाँ गिर पड़े, आठ गिन्नियाँ थीं।’
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