कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 18 प्रेमचन्द की कहानियाँ 18प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अठारहवाँ भाग
प्राय: सभी पत्रों में थोड़े-से-फेर-फार के साथ यही शब्द और यही भाव होते थे। हां, जवानी के पत्रों में विरह की जो ज्वाला होती थी, उसकी जगह अब निराशा की राख ही रह गई थी। लेकिन तुलिया के लिए सभी पत्र एक-से प्यारे थे, मानो उसके हृदय के अंग हों। उसने एक खत भी कभी न फाड़ा था- ऐसे शगुन के पत्र कहीं फाड़े जाते हैं -उनका एक छोटा-सा पोथा जमा हो गया था। उनके कागज का रंग उड़ गया था, स्याही भी उड़ गई थी, लेकिन तुलिया के लिए वे अभी उतने ही सजीव, उतने ही सतृष्ण, उतने ही व्याकुल थे। सब के सब उसकी पेटारी में लाल डोरे से बंधे हुए, उसके दीर्घ जीवन से संचित सोहाग की भांति, रखे हुए थे। इन पत्रों को पाकर तुलिया गद्गद हो जाती। उसके पांव जमीन पर न पड़ते, उन्हें बार-बार पढ़वाती और बार-बार रोती। उस दिन वह अवश्य केशों में तेल डालती, सिन्दूर से मांग भरवाती, रंगीन साड़ी पहनती, अपनी पुरखिनों के चरन छूती और आशीर्वाद लेती। उसका सोहाग जाग उठता था।
गांव की बिरहिनियों के लिए पत्र-पत्र नहीं, जो पढ़कर फेंक दिया जाता है, अपने प्यारे परदेसी के प्राण हैं, देह से मूल्यवान। उनमें देह की कठोरता नहीं, कलुषता नहीं, आत्मा की आकुलता और अनुराग है। तुलिया पति के पत्रों ही को शायद पति समझती थी। पति का कोई दूसरा रूप उसने कहां देखा था?
रमणियां हंसी से पूछती- क्यों बुआ, तुम्हें फूफा की कुछ याद आती है - तुमने उनको देखा तो होगा?
और तुलिया के झुर्रियों से भरे हुए मुखमण्डल पर यौवन चमक उठता, आंखों में लाली आ जाती। पुलककर कहती- याद क्यों नहीं आती बेटा, उनकी सूरत तो आज भी मेरी आंखों के समाने हैं बड़ी-बड़ी आंखें, लाल-लाल ऊंचा माथा, चौड़ी छाती, गठी हुई देह, ऐसा तो अब यहां कोई पट्ठा ही नहीं है। मोतियों के-से दांत थे बेटा। लाल-लाल कुरता पहने हुए थे। जब ब्याह हो गया तो मैंने उनसे कहा, मेरे लिए बहुत-से गहने बनवाओगे न, नहीं मैं तुम्हारे घर नहीं रहूंगी। लड़कपन था बेटा, सरम-लिहाज कुछ थोड़ा ही था। मेरी बात सुनकर वह बड़े जोर से ठट्ठा मारकर हंसे और मुझे अपने कंधे पर बैठाकर बोले- मैं तुझे गहनों से लाद दूंगा, तुलिया, कितने गहने पहनेगी। मैं परदेस कमाने जाता हूं, वहां से रुपये भेजूंगा, तू बहुत-से गहने बनवाना। जब वहां से आऊंगा तो अपने साथ भी सन्दूक-भर गहने लाऊंगा। मेरा डोला हुआ था बेटा, मां-बाप की ऐसी हैसियत कहां थी कि उन्हें बारात के साथ अपने घर बुलाते उन्हीं के घर मेरी उनसे सगाई हुई और एक ही दिन में मुझे वह कुछ ऐसे भाये कि जब वह चलने लगे तो मैं उनके गले लिपट कर रोती थी और कहती थी कि मुझे भी अपने साथ ले चलो, मैं तुम्हारा खाना पकाऊंगी, तुम्हारी खाट बिछाऊंगी, तुम्हारी धेती छांटूगी। वहां उन्हीं के उमर के दो-तीन लड़के और बैठे हुए थे। उन्हीं के सामने वह मुस्करा कर मेरे कान में बोले- और मेरे साथ सोयेगी नहीं? बस, मैं उनका गला छोड़कर अलग खड़ी हो गई और उनके ऊपर एक कंकड़ फेककर बोली- मुझे गाली दोगे तो कहे देती हूं, हां!
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