कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 18 प्रेमचन्द की कहानियाँ 18प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अठारहवाँ भाग
तुलिया न टोकरी पटक दी, अपने पांव छुड़ाकर एक पग पीछे हट गयी ओर रोषभरी आंखों से ताकती हुई बोली- अच्छा ठाकुर, अब यहां से चले जाव, नहीं तो या तो तुम न रहूंगी। तुम्हारे आमों में आग लगे, और तुमको क्या कहूं! मेरा आदमी काले कोसों मेरे नाम पर बैठा हुआ है इसीलिए कि मैं यहां उसके साथ कपट करूं! वह मर्द है, चार पेसे कमाता है, क्या वह दूसरी न रख सकता था? क्या औरतों की संसार में कमी है? लेकिन वह मेरे नाम पर चाहे न हो। पढ़ोगे उसकी चिट्ठियां जो मेरे नाम भेजता है? आप चाहे जिस दशा में हो, मैं कौन यहां बेठी देखती हूं, लेकिन मेरे पास बराबर रुपये भेजता है। इसीलिए कि मैं यहां दूसरों से विहार करूं? जब तक मुझको अपनी और अपने को मेरा समझता रहेगा, तुलिया उसी की रहेगी, मन से भी, करम से भी। जब उससेमेरा ब्याह हुआ तब मैं पांच साल की अल्हड़ छोकरी थी। उसने मेरे साथ कौन-सा सुख उठाया? बांह पकड़ने की लाज ही तो निभा रहा है! जब वह मर्द होकर प्रीत निभाता है तो मैं औरत होकर उसके साथ दगा करूं! यह कहकर वह भीतर गयी और पत्रों की पिटारी लाकर ठाकुर के सामने पटक दी। मगर ठाकुर की आंखों का तार बंधा हुआ था, ओठ बिचके जा रहे थे। ऐसा जान पड़ता था कि भूमि में धंसा जा रहा है।
एक क्षण के बाद उसने हाथ जोड़कर कहा- मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया तुलिया। मैंने तुझे पहचाना न था। अब इसकी यही सजा है कि इसी क्षण मुझे मार डाल। ऐसे पापी का उद्वार का यही एक मार्ग है।
तुलिया को उस पर दया नहीं आयी। वह समझती थी कि यह अभी तक शरारत किये जाता है। झल्लाकर बोली- मरने को जी चाहता है तो मर जाव। क्या संसार में कुंए-तालाब नहीं, या तुम्हारे पास तलवार-कटार नहीं है। मैं किसी को क्यों मारूं?
ठाकुर ने हताश आंखों से देखा।
“तो यही तेरा हुक्म है?”
‘मेरा हुक्म क्यों होने लगा? मरने वाले किसी से हुक्म नहीं मांगते।’
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