कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 18 प्रेमचन्द की कहानियाँ 18प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अठारहवाँ भाग
एक दिन ठकुराइन ने कहा- तुला, तुम बच्चे को देखती रहना, मैं दो-चार दिन के लिए जरा बाहर जाऊंगी। इस तरह तो यहां जिन्दगी-भर तुम्हारी रोटीयां तोड़ती रहूंगी, पर दिल की आग कैसे ठण्डी होगी? इस बेहया को इसकी जाल कहां कि उसकी भावज कहां चली गयी। वह तो दिल में खुश होगा कि अच्छा हुआ उसके मार्ग का कांटा हट गया। ज्यों ही पता चला कि मैं अपने मैके नहीं गयी, कहीं और पड़ी हूं, वह तुरन्त मुझे बदनाम कर देगा और तब सारा समाज उसी का साथ देगा। अब मुझे कुछ अपनी फिक्र करनी चाहिए।
तुलिया ने पूछा- कहां जाना चाहती हो बहिन? कोई हर्ज न हो तो मैं भी साथ चलूं। अकेली कहां जाओगी?
‘उस सांप को कुचलने के लिए कोई लाठी खोजूंगी।’
तुलिया इसका आशक न समझ सकी। उसके मुख की ओर ताकने लगी।
ठकुराइन ने निर्लज्ज्ता के साथ कहा- तू इतनी मोटी-सी बात भी नहीं समझी! साफ-साफ ही सुनना चाहती है? अनाथ स्त्री के पास अपनी रक्षा का अपने रूप के सिवा दूसरा कौन अस्त्र है? अब उसी अस्त्र से काम लूंगी। जानती है, इस रूप के क्या दाम होंगे? इस भेड़िये का सिर। इस परगने का हाकिम जो कोई भी हो उसी पर मेरा जादू चलेगा। और ऐसा कौन मर्द है जो किसी युवती के जादू से बच सके, चाहे वह ऋषि ही क्यों न हो। धर्म जाता है जाय, मुझ परवाह नहीं। मैं यह नहीं देख सकती कि मैं बन-बन की पत्तियां तोडूं और वह शोहदा मूंछों पर ताव देकर राज करे।
तुलिया को मालूम हुआ कि इस अभिमानिनी के हृदय पर कितनी गहरी चोट है इस व्यथा को शान्त करने के लिए वह जान ही पर नहीं खेल रही है, धर्म पर खेल रही है जिसे वह प्राणों से भी प्रिय समझती है। बंसीसिंह की वह प्रार्थी मूर्ति उसकी आंखों के समाने आ खड़ी हुई। वह बलिष्ठ था, अपनी फौलादी शक्ति से वह बड़ी आसानी के साथ तुलिया पर बल प्रयोग कर सकता था, ओर उस रात के सन्नाटे में उस आनाथा की रक्षा करने वाला ही कौन बैठा हुआ था। पर उसकी सतीत्व-भरी भर्त्सना ने बंसीसिंह को किस तरह मोहित कर लिया, जैसे कोई काला भयंकर नाग महुअर का सुरीला राग सुनकर मस्त हो गया हो। उसी सच्चे सूरमा की कुलीन-मर्यादा आज संकट में है। क्या तुलिया उस मर्यादा को लुटने देगी और कुछ न करेगी? नहीं-नहीं! अगर बंसीसिंह ने उसके सत् को अपने प्राणों से प्रिय समझा तो वह भी उसकी आबरू को अपने धर्म से बचायेगी।
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