कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 18 प्रेमचन्द की कहानियाँ 18प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अठारहवाँ भाग
ठाकुर प्रसन्न होकर बोला- तो तू चलकर मेरे घर में मालकिन बनकर रह। मैं तुझसे कितनी बार कह चुका।
तुलिया आंखें मटकाकर बोली- आज मालकिन बनकर रहूं कल लौंडी बनकर भी न रहने पाऊं, क्यों?
‘तो जिस तरह तेरा मन भरे वह कर। मैं तो तेरा गुलाम हूं।’
‘बचन देते हो?’
‘हां, देता हूं। एक बार नहीं, सौ बार, हजार बार।’
‘फिर तो न जाओगे?’
‘वचन देकर फिर जाना नामर्दों का काम है।’
‘तो अपनी आधी जमीन-जायदाद मेरे नाम लिख दो।’
ठाकुर अपने घर की एक कोठरी, दस-पांच बीघे खेत, गहने-कपड़े तो उसके चरणों पर चढ़ा देने को तैयार था, लेकिन आधी जायदाद उसके नाम लिख देने का साहस उसमें न था। कल को तुलिया उससे किसी बात पर नाराज हो जाय, तो उसे आधी जायदाद से हाथ धोना पड़े। ऐसी औरत का क्या एतबार! उसे गुमान तक न था कि तुलिया उसके प्रेम की इतनी कड़ी परीक्षा लेगी। उसे तुलिया पर क्रोध आया। यह चमार की बिटिया जरा सुन्दर क्या हो गयी है कि समझती है, मैं अप्सरा हूं। उसकी मुहब्बत केवल उसके रूप का मोह थी। वह मुहब्बत, जो अपने को मिटा देती है और मिट जाना ही अपने जीवन की सफलता समझती है, उसमें न थी।
उसने माथे पर बल लाकर कहा- मैं न जानता था, तुझे मेरी जमीन-जायदाद से प्रेम है तुलिया, मुझसे नहीं!
तुलिया ने छूटते ही जवाब दिया- तो क्या मैं न जानती थी कि तुम्हें मेरे रूप और जवानी ही से प्रेम है, मुझसे नहीं?
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