कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 18 प्रेमचन्द की कहानियाँ 18प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अठारहवाँ भाग
रामेन्द्र- 'क़िसी महात्मा की समाधि है?'
सुलोचना ने इस सवाल को उड़ा देना चाहा। रामेन्द्र यह तो जानते थे कि सुलोचना कुँवर साहब की दाश्ता औरत की लड़की है; पर उन्हें यह न मालूम था कि यह उसी की कब्र है और कुँवर साहब अतीत-प्रेम के इतने उपासक हैं। मगर यह प्रश्न उन्होंने बहुत धीमे स्वर में न किया था। कुँवर साहब जूते पहन रहे थे। यह प्रश्न उनके कान में पड़ गया। जल्दी से जूता पहन लिया और समीप जाकर बोले- 'संसार की आँखों में तो वह महात्मा न थी; पर मेरी आँखों में थी और है। यह मेरे प्रेम की समाधि है।'
सुलोचना की इच्छा होती थी, यहाँ से भाग जाऊँ; लेकिन कुँवर साहब को जुहरा के यशोगान में आत्मिक आनन्द मिलता था। रामेन्द्र का विस्मय देखकर बोले इसमें वह देवी सो रही है, जिसने मेरे जीवन को स्वर्ग बना दिया था। यह सुलोचना उसी का प्रसाद है।'
रामेन्द्र ने कब्र की तरफ देखकर आश्चर्य से कहा, 'अच्छा !'
कुँवर साहब ने मन में उस प्रेम का आनन्द उठाते हुए कहा, 'वह जीवन ही और था, प्रोफेसर साहब। ऐसी तपस्या मैंने और कहीं नहीं देखी। आपको फुरसत हो, तो मेरे साथ चलिए। आपको उन यौवन-स्मृतियों ...
सुलोचना बोल उठी, 'वे सुनाने की चीज नहीं हैं, दादा !'
कुँवर- 'मैं रामेन्द्र बाबू को गैर नहीं समझता।'
रामेन्द्र को प्रेम का यह अलौकिक रूप मनोविज्ञान का एक रत्न-सा मालूम हुआ। वह कुँवर साहब के साथ ही उनके घर आये और कई घंटे तक उन हसरत में डूबी हुई प्रेम-स्मृतियों को सुनते रहे। जो वरदान माँगने के लिए उन्हें साल भर से साहस न होता था, दुबिधा में पड़कर रह जाते थे, वह आज उन्होंने माँग लिया।
लेकिन विवाह के बाद रामेन्द्र को नया अनुभव हुआ। महिलाओं का आना-जाना प्राय: बंद हो गया। इसके साथ ही मर्द दोस्तों की आमदरफ्त बढ़ गई। दिन भर उनका तांता लगा रहता था। सुलोचना उनके आदर-सत्कार में लगी रहती। पहले एक-दो महीने तक तो रामेन्द्र ने इधर ध्यान नहीं दिया; लेकिन जब कई महीने गुजर गये और स्त्रियों ने बहिष्कार का त्याग न किया तो उन्होंने एक दिन सुलोचना से कहा, 'यह लोग आजकल अकेले ही आते हैं !'
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