कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 18 प्रेमचन्द की कहानियाँ 18प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अठारहवाँ भाग
सुलोचना ने निर्भीकता से कहा, 'ज़ी नहीं, मेरे लिए बेड़ियाँ तैयार की जा रही हैं। मैं इन बेड़ियों को नहीं पहन सकती। मैं अपनी आत्मा को उतना ही स्वाधीन समझती हूँ, जितना कोई मर्द समझता है।'
रामेन्द्र ने अपनी कठोरता पर कुछ लज्जित होकर कहा, 'मैंने तुम्हारी आत्मा की स्वाधीनता को छीनने की कभी इच्छा नहीं की। और न मैं इतना विचारहीन हूँ। शायद तुम भी इसका समर्थन करोगी। लेकिन क्या तुम्हें विपरीत मार्ग पर चलते देखूँ तो मंा तुम्हें समझा भी नहीं सकता?'
सुलोचना- 'उसी तरह जैसे मैं तुम्हें समझा सकती हूँ। तुम मुझे मजबूर नहीं कर सकते।'
रामेन्द्र- 'मैं इसे नहीं मान सकता।'
सुलोचना- 'अगर मैं अपने किसी नातेदार से मिलने जाऊँ, तो आपकी इज्जत में बट्टा लगता है। क्या इसी तरह आप यह स्वीकार करेंगे कि आपका व्यभिचारियों से मिलना-जुलना मेरी इज्जत में दाग लगाता है?'
रामेन्द्र- 'हाँ, मैं मानता हूँ।'
सुलोचना- 'आपका कोई व्यभिचारी भाई आ जाय, तो आप उसे दरवाजे से भगा देंगे?'
रामेन्द्र- 'तुम मुझे इसके लिए मजबूर नहीं कर सकतीं।'
सुलोचना- 'और आप मुझे मजबूर कर सकते हैं?'
'बेशक।'
'क्यों?'
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