कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 18 प्रेमचन्द की कहानियाँ 18प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अठारहवाँ भाग
सहसा रामेन्द्र ने आकर पूछा, 'ग़ाड़ी क्यों मँगवाई? कहाँ जा रही हो?'
रामेन्द्र का चेहरा इतना क्रोधोन्मत्त हो रहा था, कि सुलोचना सहम उठी। दोनों आँखों से ज्वाला-सी निकल रही थी। नथुने फड़क रहे थे, पिंडलियाँ काँप रही थीं। यह कहने की हिम्मत न पड़ी कि गुलनार के घर जाती हूँ। गुलनार का नाम सुनते ही शायद यह मेरी गर्दन पर सवार हो जायेंगे इस भय से वह काँप उठी। आत्मरक्षा का भाव प्रबल हो गया। बोली, 'ज़रा अम्माँ के मजार तक जाऊँगी।'
रामेन्द्र ने डॉटकर कहा, 'क़ोई जरूरत नहीं वहाँ जाने की।'
सुलोचना ने कातर स्वर में कहा, 'क्यों अम्माँ के मजार तक जाने की भी रोक है?'
रामेन्द्र ने उसी ध्वनि में कहा, 'हाँ।'
सुलोचना- 'तो फिर अपना घर सम्हालो, मैं जाती हूँ।'
रामेन्द्र- 'ज़ाओ, तुम्हारे लिए क्या, यह न सही दूसरा घर सही !'
अभी तक तस्मा बाकी था, वह कट गया। यों शायद सुलोचना वहाँ से कुँवर साहब के बँगले पर जाती, दो-चार दिन रूठी रहती, फिर रामेन्द्र उसे मना लाते और मामला तय हो जाता, लेकिन इस चोट ने समझौते और संधि की जड़ काट दी। सुलोचना दरवाजे तक पहुँची थी, वहीं चित्रलिखित-सी खड़ी रह गई। मानो किसी ऋषि के शाप ने उसके प्राण खींच लिये हों। वहीं बैठ गई। न कुछ बोल सकी, न कुछ सोच सकी। जिसके सिर पर बिजली गिर पड़ी हो, वह क्या सोचे, क्या रोये, क्या बोले। रामेन्द्र के वे शब्द बिजली से कहीं अधिक घातक थे।
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