कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 18 प्रेमचन्द की कहानियाँ 18प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अठारहवाँ भाग
'मुझसे तो अब कुछ नहीं होगा।'
'बस इसी बूते अकड़ते थे !'
'सारी अकड़ निकल गयी।'
बाडे की दीवार कच्ची थी। हीरा मजबूत तो था ही, अपने नुकीले सींग दीवार में गड़ा दिये और जोर मारा, तो मिट्टी का एक चिप्पड निकल आया। फिर तो उसका साहस बढा। इसने दौड-दौडकर दीवार पर कई चोटे की और हर चोट में थोडी थोड़ी मिट्टी गिराने लगा।
उसी समय काँजीहौस का चौकीदार लालटेन लेकर जानवरों की हाजिरी लेने आ निकला। हीरा का उजड्डपन देखकर उसने उसे कई डंडे रसीद किये और मोटी सी रस्सी से बाँध दिया।
मोती ने पड़े पड़े कहा- आखिर मार खायी, क्या मिला?
'अपने बूते भर जोर तो मार दिया।'
'ऐसा जोर मारना किस काम का कि और बंधन में पड़ गये।'
'जोर तो मारता ही जाऊँगा, चाहे कितने वंधन पड़ जायें।'
'जान से हाथ धोना पड़ेगा।'
'कुछ परवाह नहीं। यो भी तो मरना ही है। सोचो, दीवार खुद जाती तो कितनी जानें बच जातीं। इतने भाई यहाँ बन्द हैं। किसी के देह में जान नहीं हैं। दो चार दिन और यही हाल रहा तो सब मर जायेंगे।'
'हाँ, यह बात तो है। अच्छा, तो लो, फिर मैं भी जोर लगाता हूँ।'
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