कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 18 प्रेमचन्द की कहानियाँ 18प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अठारहवाँ भाग
'भगवान् के लिए हमारा मरना-जीना दोनो बराबर हैं। चलो, अच्छा ही है, कुछ दिन उसके पास तो रहेंगे। एक बार भगवान् ने उस लड़की के रूप में हमें बचाया था क्या अब न बचायेंगे।'
'यह आदमी छुरी चलायेगा। देख लेना।'
'तो क्या चिन्ता है? माँस, खाल, सींग, हड्डी सब किसी न किसी काम आ जायेंगी।'
नीलाम हो जाने के बाद दोनों मित्र दढ़ियल के साथ चले। दोनों की बोटी-बोटी काँप रही थी। बेचारे पाँव तक न उठा सकते थे, पर भय के मारे गिरते-पड़ते भागे जाते थे ; क्योंकि बह जरा भी चाल धीमी हो जाने पर जोर से डंडा जमा देता था।
राह में गाय-बैलो का एक रेवड हरे-हरे हार में चरता नजर आया। सभी जानवर प्रसन्न थे, चिकने, चपल। कोई उछलता कोई आनन्द से बैठा पागुर करता था। कितना सुखी जीवन था इनका; पर कितने स्वार्थी हैं सब। किसी को चिन्ता नहीं कि उनके दो भाई बधिक के हाथ पड़े कैसे दुःखी हैं।
सहसा दोनों को ऐसा मालूम हुआ कि यह परिचित राह है। हाँ, इसी रास्ते से गया उन्हें ले गया था। वही खेत, वही बाग, वही गाँव मिलने लगे। सारी थकान, सारी दुर्बलता गायब हो गयी। आह? यह लो ! अपना ही हार आ गया। इसी कुएँ पर हम पुर चलाने आया करते थे; यही कुआँ है।
मोती ने कहा- हमारा घर नगीच आ गया।
हीरा बोला- भगवान् की दया है।
'मैं तो अब घर भागता हूँ।'
'यह जाने देगा?'
'इसे मार गिराता हूँ।'
'नहीं-नहीं, दौड़कर थान पर चलो। वहाँ से आगे न जायेंगे।'
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