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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780
आईएसबीएन :9781613015179

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


अब अंतिम आशा यह थी कि प्रातःकाल जब पतिदेव कलेवा के लिए बुलाए जाएँगे, उस समय देखूँगी, तब उनके सिर पर मौर न होगा, सखियों के साथ मैं भी जा बैठूँगी और खूब जी भरकर देखूँगी, पर क्या मालूम थी कि विधि कोई और ही कुचक्र रच रही है। प्रातःकाल देखती हूँ तो जनवासे के खेमे उखड़ रहे हैं। बात कुछ न थी। बरातियों के नाश्ते के लिए जो सामान भेजा गया था, वह काफ़ी न था। शायद घी भी खराब था। मेरे पिताजी को तो तुम जानती ही हो। कभी किसी से दबे नहीं, जहाँ रहे शेर बनकर रहे। बोले- ''जाते हैं जाने दो, मनाने की कोई जरूरत नहीं, कन्यापक्ष का धर्म है बरातियों का सत्कार करना, लेकिन सत्कार का यह अर्थ नहीं कि धमकी और रोब से काम लिया जाए, मानो किसी अफ़सर का पड़ाव हो। अगर वह अपने लड़के की शादी कर सकते हैं, तो मैं भी अपनी लड़की की शादी कर सकता हूँ।

बरात चली गई और मैं पति के दर्शन न कर सकी! सारे शहर में हलचल मच गई। विरोधियों को हँसने का अवसर मिला। पिताजी ने बहुत सामान जमा किया था। वह सब खराब हो गया। घर में जिसे देखिए, मेरी ससुराल की निंदा कर रहा है-उजड्ड हैं, लोभी हैं, बदमाश हैं। मुझे जरा भी बुरा नहीं लगता, लेकिन पति के विरुद्ध मैं एक शब्द भी नहीं सुनना चाहती। एक दिन अम्माजी बोलीं- ''लड़का भी बेसमझ है। दूध पीता बच्चा नहीं, क़ानून पढ़ता है, मूंछ-दाढ़ी आ गई है, उसे अपने बाप को समझाना चाहिए था कि आप लोग क्या कर रहे हैं। मगर वह भी भीगी बिल्ली बना रहा।'' मैं सुनकर मन में तिलमिला उठी। कुछ बोली तो नहीं, पर अम्माजी को मालूम जरूर हो गया कि इस विषय में मैं उनसे सहमत नहीं। मैं तुम्हीं से पूछती हूँ बहन, जैसी समस्या उठ खड़ी हुई थी, उसमें उनका क्या धर्म था? अगर वह अपने पिता और अन्य संबंधियों का कहना न मानते, तो उनका अपमान न होता? उस वक्त उन्होंने वही किया, जो उचित था। मगर मुझे विश्वास है कि जरा मामला ठंडा होने पर यह आवेंगे। मैं अभी से उनकी राह देखने लगी हूँ। डाकिया चिट्ठियाँ लाता है तो दिल में धड़कन होने लगती है - शायद उनका पत्र भी हो! जी में बार-बार आता है, क्यों न मैं ही एक खत लिखूँ। मगर संकोच में पड़कर रह जाती हूँ। शायद मैं कभी न लिख सकूँगी। मान नहीं है, केवल संकोच है, पर हाँ, अगर दस-पाँच दिन और उनका पत्र न आया, या वह खुद न आए, तो संकोच मान का रूप धारण कर लेगा। क्या तुम उन्हें एक चिट्ठी नहीं लिख सकतीं, सब खेल बन जाए। क्या मेरी इतनी खातिर भी न करोगी? मगर ईश्वर के लिए उस खत में कहीं यह न लिख देना कि चंदा ने प्रेरणा की है। क्षमा करना, ऐसी भद्दी ग़लती की तुम्हारी ओर से शंका करके मैं तुम्हारे साथ अन्याय कर रही हूँ मगर मैं समझदार थी ही कब?

तुम्हारी
चंदा  

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