कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
भुवन ने सिगार जलाते हुए कहा- ''कुछ सुना, कहाँ जाकर तान टूटी।''
मैंने मारे शर्म के सिर झुका लिया। क्या जवाब देती। विनोद की अंतिम बात ने मेरे हृदय पर कठोर आघात किया था। मुझे ऐसा मालूम हो रहा था कि विनोद ने केवल मुझे सुनाने के लिए विवाह का यह नया खंडन तैयार किया है। वह मुझसे पिंड छुड़ा लेना चाहते हैं। वह किसी और रमणी की ताक में हैं, मुझसे उनका जी भर गया है। यह ख्याल करके मुझे बड़ा दुख हुआ। मेरी आँखों से आसू बहने लगे। कदाचित् एकांत में मैं न रोती, पर भुवन के सामने मैं संयत न रह सकी। भुवन ने मुझे बहुत सांत्वना दी- ''आप व्यर्थ इतना शोक करती हैं। मिस्टर विनोद आपका मान न करें, पर संसार में कम-से-कम एक ऐसा व्यक्ति है जो आपके संकेत पर अपने प्राण तक न्यौछावर कर सकता है। आप जैसी रमणी रत्न पाकर संसार में ऐसा कौन पुरुष है जो अपने भाग्य को धन्य न मानेगा। आप इसकी बिलकुल चिंता न करें।''
मुझे भुवन की यह बात बुरी मालूम हुई। क्रोध से मेरा मुख लाल हो गया। यह धूर्त मेरी इस दुर्बलता से लाभ उठाकर मेरा सर्वनाश करना चाहता है। अपने दुर्भाग्य पर बराबर रोना आता था। अभी विवाह हुए साल भी नहीं पूरा हुआ और मेरी यह दशा हो गई कि दूसरों को मुझे बहकाने और मुझ पर अपना जादू चलाने का साहस हो रहा है। जिस वक्त मैंने विनोद को देखा था, मेरा हृदय कितना फूल उठा था। मैंने अपने हदय को कितनी भक्ति से उनके चरणों पर अर्पण किया था। मगर क्या जानती थी कि इतनी जल्द मैं उनकी आँखों से गिर जाऊँगी, और मुझे परित्यक्ता समझकर शोहदे मुझ पर डोरे डालेंगे।
मैंने आँसू पोछते हुए कहा- ''मैं आपसे क्षमा माँगती हूँ। मुझे जरा विश्राम लेने दीजिए।''
''हाँ-हाँ, आप आराम करें मैं बैठा देखता रहूँगा।''
''जी नहीं, अब आप कृपा करके जाइए। यों मुझे आराम मिलेगा।''
''अच्छी बात है, आप आराम कीजिए। मैं संध्या समय आकर देख जाऊँगा।''
''जी नहीं, आपको कष्ट करने की कोई जरूरत नहीं है।''
''अच्छा तो मैं कल आऊँगा। शायद महाराजा साहब भी आवें।''
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