कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
बस, अब और कुछ न लिखूँगा। तुमको एक चेतावनी देने की इच्छा हो रही है, पर दूँगा नहीं; क्योंकि तुम अपना भला और बुरा खुद समझ सकती हौ। तुमने सलाह देने का हक़ मुझसे छीन लिया है। फिर भी इतना कहे बगैर नहीं रहा जाता कि संसार में प्रेम का स्वाँग दिखानेवाले शोहदों की कमी नहीं है, उनसे बचकर रहना। ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूँ कि तुम जहाँ रहो, आनंद से रहो। अगर कभी तुम्हें मेरी जरूरत पड़े, तो याद करना। तुम्हारी एक तस्वीर का अपहरण किए जाता हूँ। क्षमा करना। क्या मेरा इतना अधिकार भी नहीं। हाय! जी चाहता है एक बार फिर देख आऊँ, मगर नहीं जाऊँगा।''
विनोद
बहन,
यह पत्र पढ़कर मेरे चित्त की जो दशा हुई, उसका तुम अनुमान कर सकती हो। रोई तो नहीं, पर दिल बैठा जाता था। बार-बार जी चाहता था कि विष खाकर सो रहूँ। 10 बजने में अब थोड़ी ही देर थी। मैं तुरंत विद्यालय गई और दर्शन-विभाग के अध्यक्ष को विनोद का पत्र दिया। यह एक मदरासी सज्जन हैं। मुझे बड़े आदर से बिठाया और पत्र पढ़कर बोले- आपको मालूम है वह कहाँ गए और कब तक आवेंगे। इसमें तो केवल एक मास की छुट्टी माँगी गई है। मैंने बहाना किया- वह आवश्यक कार्य से काशी गए हैं और निराश होकर लौट आई। मेरी अंतरात्मा सहस्रों जिह्वा बनकर मुझे धिक्कार रही थी। कमरे में उनकी तस्वीर के सामने घुटने टेककर मैंने जितने पश्चात्ताप-पूर्ण शब्दों में क्षमा माँगी है, यह अगर किसी तरह उनके कानों तक पहुँच सकती, तो उन्हें मालूम होता कि उन्हें मेरी ओर से कितना भ्रम हुआ! तब से अब तक मैंने कुछ भोजन नहीं खाया, और न एक मिनट सोई। विनोद मेरी सुधा और निद्रा भी अपने साथ लेते गए और शायद इसी तरह दस-पाँच दिन उनकी खबर न मिली, तो प्राण भी चले जाएँगे। आज मैं बैंक तक गई थी, पर यह पूछने की हिम्मत न पड़ी कि विनोद का कोई पत्र आया। वह सब क्या सोचते कि यह उनकी पत्नी होकर हमसे पूछने आई है!
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