कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
चंदा, प्यारी बहन, एक सप्ताह के लिए आ जा। तुझसे मिलने के लिए मन अधीर हो रहा है। मुझे इस समय तेरी सलाह और सहानुभूति की बड़ी जरूरत है। यह मेरे जीवन का सबसे नाजुक समय है। इन्हीं दस-पांच दिनों में या तो पारस हो जाऊँगी या मिट्टी। लो 7 बज गए और अभी बाल तक नहीं बनाए। विनोद के आने का समय है। अब विदा होती हूँ। कहीं आज फिर अभागिनी कुसुम अपने बरामदे में न आ खड़ी हो। अभी से दिल काँप रहा है। कल तो यह सोचकर मन को समझाया था कि यों ही सरल भाव से वह हँस पड़ी हो। आज भी अगर वही दृश्य सामने आया, तो उतनी आसानी से मन को न समझा सकूँगी।
पद्मा
गोरखपुर
5-7-25
प्रिय पद्मा,
भला एक युग के बाद तुम्हें मेरी सुधि तो आई। मैंने तो समझा था, शायद तुमने परलोक-यात्रा कर ली। यह उसी निष्ठुरता का दंड है, जो कुसुम तुम्हें दे रही है। 15 एप्रिल को कालेज बंद हुआ और 1 जुलाई को आप खत लिखती हैं, पूरे ढाई महीने बाद। वह भी कुसुम की कृपा से। जिस कुसुम को तुम कोस रही हो, उसे मैं आशीर्वाद दे रही हूँ। वह दारुण दुःख की भाँति तुम्हारे रास्ते मैं न आ खड़ी होती, तो तुम्हें क्यों मेरी याद आती। खैर, विनोद की तुमने जो तस्वीर खींची, वह बहुत ही आकर्षक है, और मैं ईश्वर से मना रही हूँ वह दिन जल्द आए कि मैं उनसे बहनोई के नाते मिल सकूँ। मगर देखना कहीं सिविल मैरेज न कर बैठना, विवाह हिंदू-पद्धति के अनुसार ही हो, हाँ तुम्हें, अख्तियार है जो सैकड़ों बेहूदा और व्यर्थ के पचड़े हैं, उन्हें निकाल डालो। एक सच्चे, विद्वान् पंडित को अवश्य बुलाना, इसलिए नहीं कि वह तुमसे बात-बात पर टके निकलवाए, बल्कि इसलिए कि वह देखता रहे कि सब कुछ शास्त्र-विधि से हो रहा है या नहीं।
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