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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780
आईएसबीएन :9781613015179

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


झिनकू– तो का हम ही सबसे पापी हन। फिर कभू जो हमका पियत देख्यो, बैठाय के पचास जूता लगायो।

रामबली– अरे जा मुंशी जी बुलायेंगे तो कुत्ते की तरह दौड़ते हुए जाओगे।

झिनकू– मुंशी जी के साथ बैठे देख्यो तो सौ जूता लगायो, जिनके बात में फरक है उनके बाप में फरक है।

रामबली– तो भाई मैं भी कसम खाता हूँ कि आज से गाँठ के पैसे निकाल कर न पीऊँगा। हाँ, मुफ्त की पीने में इन्कार नहीं।

बेचन– गाँठ के पैसे तुमने कभी खर्च किये हैं?

इतने में मुंशी मैकूलाल लपके हुए आते दिखायी दिये। यद्यपि वह बाजी मार कर आये थे, मुख पर विजय गर्व की जगह खिसियानापन छाया हुआ था। किसी अव्यक्त कारणवश वह इस विजय का हार्दिक आनंद न उठा सकते थे। हृदय के किसी कोने में छिपी हुई लज्जा उन्हें चुटकियाँ ले रही थीं। वह स्वयं अज्ञात थे, पर उस दुस्साहस का खेद उन्हें व्यथित कर रहा था।

रामबली ने कहा– आइए मुख्तार साहब, बड़ी देर लगायी।

मुंशी– तुम सब के सब गावदी ही निकले, एक साधु के चकमे में आ गये।

रामबली– इन लोगों ने तो आज से शराब न पीने की कसम खा ली है।

मुंशी– ऐसा तो मैंने मर्द ही न देखा जो एक बार इसके चंगुल में फँस कर निकल जाय। मुँह में बकना दूसरी बात है।

ईदू– जिन्दगी रही तो देख लीजियेगा।

झिनकू– दाना-पानी तो कोऊ से नहीं छूट सकत है और बातन का जब मनमा आवे छोड़ देव। बस चोट लग जाय का चाही, नशा खाये बिना कोई मर नहीं जाता है।

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