कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
कैलाश भवन, लखनऊ
प्राणाधार!
तुम्हारे पत्र को पढ़कर प्राण निकल गये। उफ! अभी एक महीना लगेगा। इतने दिनों में कदाचित् तुम्हें यहाँ मेरी राख भी न मिलेगी। तुमसे अपने दुःख क्या रोऊँ! बनावट के दोषारोपण से डरती हूँ। जो कुछ बीत रही है, वह मैं ही जानती हूँ। लेकिन बिना विरह-कथा सुनाए दिल की जलन कैसे जाएगी? यह आग कैसे ठंडी होगी? अब मुझे मालूम हुआ कि यदि प्रेम में दहकती हुई आग है, तो वियोग उसके लिए घृत है। थिएटर अब भी जाती हूँ, पर विनोद के लिए नहीं, रोने और बिसूरने के लिए। रोने में ही चित्त को कुछ शांति मिलती है, आँसू उमड़े चले आते हैं। मेरा जीवन शुष्क और नीरस हो गया है। न किसी से मिलने को जी चाहता है, न आमोद-प्रमोद में मन लगता है। परसों डाक्टर केलकर का व्याख्यान था, भाई साहब ने बहुत आग्रह किया, पर मैं न जा सकी। प्यारे! मौत से पहले मत मारो। आनन्द के गिने-गिनाए क्षणों में वियोग का दुःख मत दो। आओ, यथासाध्य शीघ्र आओ, और गले से लगकर मेरे हृदय का ताप बुझाओ, अन्यथा आश्चर्य नहीं कि विरह का यह अथाह सागर मुझे निगल जाय।
इसके बाद कामिनी ने दूसरा पत्र पति को लिखा :
माई डियर गोपाल!
अब तक तुम्हारे दो पत्र आये। परन्तु खेद, मैं उनका उत्तर न दे सकी। दो सप्ताह से सिर में पीड़ा से असह्य वेदना सह रही हूँ। किसी भाँति चित्त को शांति नहीं मिलती है। पर अब कुछ स्वस्थ हूँ। कुछ चिन्ता मत करना। तुमने जो नाटक भेजे, उनके लिए हार्दिक धन्यवाद देती हूँ। स्वस्थ हो जाने पर पढ़ना आरंभ करूँगी। तुम वहाँ के मनोहर दृश्यों का वर्णन मत किया करो। मुझे तुम पर ईर्ष्या होती है। यदि मैं आग्रह करूँ तो भाई साहब वहाँ तक पहुँचा तो देंगे, परन्तु इनके खर्च इतने अधिक हैं कि इनसे नियमित रूप से साहाय्य मिलना कठिन है और इस समय तुम पर भार देना भी कठिन है। ईश्वर चाहेगा तो वह दिन शीघ्र देखने में आएगा, जब मैं तुम्हारे साथ आनन्दपूर्वक वहां की सैर करूँगी। मैं इस समय तुम्हें कोई कष्ट तो नहीं देना चाहती, पर अपनी आवश्यकताएँ किससे कहूँ? मेरे पास अब कोई अच्छा गाउन नहीं रहा। किसी उत्सव में जाते लजाती हूँ। यदि तुमसे हो सके तो मेरे लिए एक अपने पसंद का गाउन बनवाकर भेज दो। आवश्यकता तो और भी कई चीजों की है, परन्तु इस समय तुम्हें अधिक कष्ट देना नहीं चाहती। आशा है, तुम सकुशल होगे।
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