कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
मसूरी
5-8-25
प्यारी चंदा,
सैकड़ों बातें लिखनी हैं, किस क्रम से शुरू करूँ? समझ में नहीं आता। सबसे पहले तुम्हारे विवाह के शुभ अवसर पर न पहुँच सकने के लिए क्षमा चाहती हूँ। मैं आने का निश्चय कर चुकी थी, मैं और प्यारी चंदा के स्वयंवर में न जाऊँ। मगर उसके ठीक तीन दिन पहले विनोद ने अपना आत्म-समर्पण करके मुझे ऐसा मुग्ध कर दिया कि फिर मुझे किसी बात की सुधि न रही। आह! वे प्रेम के अंतस्तल से निकले हुए उष्ण, आवेशमय और कंपित शब्द अभी तक कानों में गूंज रहे हैं। मैं खड़ी थी, और विनोद मेरे सामने घुटने टेके हुए प्रेरणा, विनय और आग्रह के पुतले बने बैठे थे। ऐसा अवसर जीवन में एक ही बार आता है, केवल एक बार, मगर उसकी मधुर स्मृति किसी स्वर्ग-संगीत की भाँति जीवन के तार-तार में व्याप्त रहती है। तुम उस आनंद का अनुभव न कर सकोगी - मैं रोने लगी, कह नहीं सकती मन में क्या-क्या भाव आए; पर मेरी आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी। कदाचित् यही आनंद की चरम-सीमा है। मैं कुछ-कुछ निराश हो चली थी। तीन-चार दिन से विनोद को आते-जाते, कुसुम से बातें करते देखती थी, कुसुम नित नए आभूषणों से सजी रहती थी। और क्या कहूँ एक दिन विनोद ने कुसुम की एक- कविता मुझे सुनाई और एक-एक शब्द पर सिर धुनते रहे। मैं मानिनी तो हूँ ही, सोची जब यह उस चुड़ैल पर लट्टू हो रहे हैं, तो मुझे क्या गरज पड़ी है कि इनके लिए अपना सिर खपाऊँ। दूसरे दिन जब वह सवेरे आए, तो मैंने कहला दिया तबियत अच्छी नहीं है। जब उन्होंने मुझसे मिलने के लिए आग्रह किया, तब विवश होकर मुझे कमरे में आना पड़ा। मन में निश्चय करके आई थी साफ़ कह दूँगी, अब आप न आया कीजिए मैं आपके योग्य नहीं हूँ मैं कवि नहीं, विदुषी नहीं, सुभाषिणी नहीं.. एक पूरी स्पीच मन में उमड़ रही थी, पर कमरे में आई और विनोद के सतृष्ण नेत्र देखे, प्रबल उत्कंठा से काँपते हुए ओठ - बहन उस आवेश का चित्रण नहीं कर सकती। विनोद ने मुझे बैठने भी न दिया। मेरे सामने घुटनों के बल फ़र्श पर बैठ गये और उनके आतुर, उन्मत्त शब्द मेरे हृदय को तरंगित करने लगे।
एक सप्ताह तैयारियों में कट गया। पापा और मामा फूले न समाते थे। और सबसे प्रसन्न थी कुसुम! वही कुसुम जिसकी सूरत से मुझे घृणा थी! अब मुझे ज्ञात हुआ कि मैंने उस पर संदेह करके उसके साथ घोर अन्याय किया। उसका हृदय निष्कपट है, उसमें न ईर्ष्या है, न तृष्णा, सेवा ही उसके जीवन का मूल-तत्त्व है। मैं नहीं समझती कि उसके बिना ये सात दिन कैसे कटते। मैं कुछ खोई-खोई-सी जान पड़ती थी। कुसुम पर मैंने अपना सारा भार छोड दिया था। आभूषणों के चुनाव और सजाव, वस्त्रों के रंग और काट-छाँट के विषय में उसकी सुरुचि विलक्षण है। आठवें दिन जब उसने मुझे दुलहिन बनाया, तो मैं अपना रूप देखकर चकित हो गई। मैंने अपने को कभी ऐसी सुंदरी न समझा था। गर्व से मेरी आँखों में नशा-सा छा गया! उसी दिन संध्या-समय विनोद और मैं दो भिन्न जलधाराओं की भाँति संगम पर मिलकर अभिन्न हो गए। विहार-यात्रा की तैयारी पहले ही से हो चुकी थी, प्रातःकाल हम मसूरी के लिए रवाना हो गए। कुसुम हमें पहुँचाने के लिए स्टेशन तक आई और बिदा होते समय बहुत रोई। उसे साथ ले चलना चाहती थी, पर न-जाने क्यों वह राजी न हुई।
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