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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780
आईएसबीएन :9781613015179

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


सहसा गोकुल आता हुआ दिखाई दिया। मानी कमरे से निकल गयी। इंद्रनाथ के शब्दों ने उसके मन में एक तूफान-सा उठा दिया। उसका क्या आशय है, यह उसकी समझ में न आया। ‍फिर भी आज उसे अपना जीवन सार्थक मालूम हो रहा था। उसके अंधकारमय जीवन में एक प्रकाश का उदय हो गया।

इंद्रनाथ को वहाँ बैठे और मानी को कमरे से जाते देखकर गोकुल को कुछ खटक गया। उसकी त्योरियाँ बदल गयीं। कठोर स्वर में बोला- तुम यहाँ कब आये?

इंद्रनाथ ने अविचलित भाव से कहा- तुम्हीं को खोजता हुआ यहाँ आया था। तुम यहाँ न मिले तो नीचे लौटा जा रहा था, अगर चला गया होता तो इस वक्त तुम्हें यह कमरा बंद मिलता और पंखे के कड़े में एक लाश लटकती हुई नजर आती।

गोकुल ने समझा, यह अपने अपराध के छिपाने के लिये कोई बहाना निकाल रहा है। ती‍व्र कंठ से बोला- तुम यह विश्वासघात करोगे, मुझे ऐसी आशा न थी।

इंद्रनाथ का चेहरा लाल हो गया। वह आवेश में खड़ा हो गया और बोला- न मुझे यह आशा थी कि तुम मुझ पर इतना बड़ा लांछन रख दोगे। मुझे न मालूम था कि तुम मुझे इतना नीच और कुटिल समझते हो। मानी तुम्हारे लिये तिरस्कार की वस्तु हो, मेरे लिये वह श्रद्धा की वस्तु है और रहेगी। मुझे तुम्हारे सामने अपनी सफाई देने की जरूरत नहीं है, लेकिन मानी मेरे लिये उससे कहीं पवित्र है, जितनी तुम समझते हो। मैं नहीं चाहता था कि इस वक्त ‍तुमसे ये बातें कहूँ। इसके लिये और अनूकूल परि‍‍स्थितियों की राह देख रहा था, लेकिन मुआमला आ पड़ने पर कहना ही पड़ रहा है। मैं यह तो जानता था कि मानी का तुम्हारे घर में कोई आदर नहीं, लेकिन तुम लोग उसे इतना नीच और त्याज्य समझते हो, यह आज तुम्हारी माताजी की बातें सुनकर मालूम हुआ। केवल इतनी-सी बात के लिये वह चढ़ावे के गहने देखने चली गयी थी, तुम्हा्री माता ने उसे इस बुरी तरह झिड़का, जैसे कोई कुत्ते को भी न झिड़केगा। तुम कहोगे, इसमें मैं क्या करूँ, मैं कर ही क्या सकता हूँ। जिस घर में एक अनाथ स्त्री पर इतना अत्याचार हो, उस घर का पानी पीना भी हराम है। अगर तुमने अपनी माता को पहले ही दिन समझा दिया होता, तो आज यह नौबत न आती। तुम इस इल्जाम से नहीं बच सकते। तुम्हारे घर में आज उत्सव है, मैं तुम्हारे माता-पिता से कुछ बातचीत नहीं कर सकता, लेकिन तुमसे कहने में संकोच नहीं है कि मानी को को मैं अपनी जीवन सहचरी बनाकर अपने को धन्य समझूँगा। मैंने समझा था, अपना कोई ठिकाना करके तब यह प्रस्ताव करूँगा पर मुझे भय है कि और विलंब करने में शायद मानी से हाथ धोना पड़े, इसलिये तुम्हें और तुम्हारे घर वालों को चिंता से मुक्त करने के लिये मैं आज ही यह प्रस्ताव किये देता हूँ।

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