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प्रेमचन्द की कहानियाँ 20

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :154
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9781
आईएसबीएन :9781613015186

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बीसवाँ भाग


इधर कई दिन बाद सुशीला के घर गई। छोटा-सा मकान है, कोई सजावट न सामान, चारपाइयां तक नहीं, पर सुशीला कितने आनंद से रहती है। उसका उल्लास देखकर मेरे मन में भी भांति-भांति की कल्पनाएं उठने लगती हैं-उन्हें कुत्सित क्यों कहूँ, जब मेरा मन उन्हें कुत्सित नहीं समझता। इनके जीवन में कितना उत्साह है। आँखें मुस्कराती रहती हैं, ओठों पर मधुर हास्य खेलता रहता है, बातों में प्रेम का स्रोत बहता हुआ जान पड़ता है। इस आनंद से, चाहे वह कितना ही क्षणिक हो, जीवन सफल हो जाता है। फिर उसे भूल नहीं सकता, उसकी स्मृति अंत तक के लिए काफी हो जाती है, इस मिज़राब की चोट हृदय के तारों को अन्नतकाल तक मधुर स्वरों से कम्पित रख सकती है।

एक दिन मैंने सुशीला से कहा- अगर तेरे पतिदेव कहीं परदेश चले जायें, तो तू रोते-रोते मर जायेगी?

सुशीला गंभीर भाव से बोली- नहीं बहन, मरुँगी नहीं, उनकी याद मुझे सदैव प्रफुल्लित करती रहेगी, चाहे उन्हें परदेश में बरसों लग जाएं।

मैं यही प्रेम चाहती हूँ। इसी चोट के लिए मेरा मन तड़पता रहता है। मैं भी ऐसी ही स्मृति चाहती हूँ, जिससे दिल के तार सदैव बजते रहें, जिसका नशा नित्य छाया रहे।

रात रोते-रोते हिचकियां बंध गई। न-जाने क्यों दिल भर-भर आता था। अपना जीवन सामने एक बीहड़ मैदान की भांति फैला हुआ मालूम होता था, जहाँ बगुलों के सिवा हरियाली का नाम नहीं। घर फाड़े खाता था, चित्त ऐसा चंचल हो रहा था कि कहीं उड़ जाऊं। आजकल भक्ति के ग्रंथों की ओर ताकने को जी नहीं चाहता, कहीं सैर करने जाने की इच्छा नहीं होती। क्या चाहती हूँ, यह मैं स्वयं नहीं जानती। लेकिन मैं जो नहीं जानती, वह मेरा एक-एक रोम जानता है। मैं अपनी भावनाओं की संजीव मूर्ति हूँ, मेरा एक-एक अंग मेरी आंतरिक वेदना का आर्तनाद हो रहा है। मेरे चित्त की चंचलता उस अंतिम दशा को पहुँच गई है, जब मनुष्य को निंदा की न लज्जा रहती है और न भय। जिन लोभी, स्वार्थी माता-पिता ने मुझे कुएं में ढकेला, जिस पाषाण-हृदय प्राणी ने मेरी मांग में सिंदूर डालने का स्वांग किया, उनके प्रति मेरे मन में बार-बार दुष्कामनाएं उठती हैं। मैं उन्हें लज्जित करना चाहती हूँ। मैं अपने मुँह में कालिख लगा कर उनके मुख में कालिख लगाना चाहती हूँ। मैं अपने प्राण देकर उन्हें प्राणदण्ड दिलाना चाहती हूँ। मेरा नारीत्व लुप्त हो गया है, मेरे हृदय में प्रचण्ड ज्वाला उठी हुई है। घर के सारे आदमी सो रहे है थे। मैं चुपके से नीचे उतरी, द्वार खोला और घर से निकली, जैसे कोई प्राणी गर्मी से व्याकुल होकर घर से निकले और किसी खुली हुई जगह की ओर दौड़े। उस मकान में मेरा दम घुट रहा था।

सड़क पर सन्नाटा था। दुकानें बंद हो चुकी थी। सहसा एक बुढिया आती हुई दिखायी दी। मैं डरी कि कहीं चुड़ैल न हो। बुढिया ने मेरे समीप आकर मुझे सिर से पांव तक देखा और बोली- किसकी राह देख रही हो?

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