कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 20 प्रेमचन्द की कहानियाँ 20प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बीसवाँ भाग
मुझ अभागिनी को इन्होंने किस लाड़-प्यार से पाला है, मैं ही इनके जीवन का आधार और अंत काल की आशा हूँ। नहीं, यों प्राण देकर उनकी आशाओं की हत्या न करूँगी। मेरे हृदय पर चाहे जो बीते, उन्हें न कुढ़ाऊँगी। प्रभा का एक योगी गवैए के पीछे उन्मत्त हो जाना कुछ शोभा नहीं देता। योगी का गान तानसेन के गानों से भी अधिक मनोहर क्यों न हो, पर एक राजकुमारी का उसके हाथों बिक जाना हृदय की दुर्बलता प्रकट करता है; किंतु रावसाहब के दरबार में विद्या की, शौर्य की और वीरता से प्राण हवन करने की, कोई चर्चा न थी। वहाँ तो निशिदिन रागों की धूम रहती थी। यहाँ इसी शास्त्र के आचार्य प्रतिष्ठा के मसनद पर विराजित थे और उन्हीं पर प्रशंसा के बहुमूल्य रत्न लुटाए जाते थे। प्रभा ने प्रारंभ ही से इसी जलवायु का सेवन किया था और उस पर इनका गाढ़ा रंग चढ़ गया था। ऐसी अवस्था में उसकी काम-लिप्सा ने यदि भीषण रूप धारण कर लिया तो आश्चर्य ही क्या है!
शादी बड़े धूमधाम से हुई। रावसाहब ने प्रभा को गले से लगाकर बिदा किया। प्रभा बहुत रोई। उमा को तो वह किसी तरह छोड़ती ही न थी।
नौगढ़ एक बड़ी रियासत थी और राजा हरिश्चंद्र के सुप्रबंध से उन्नति पर थी। प्रभा की सेवा के लिए दासियों की एक पूरी फ़ौज थी। उसके रहने के लिए वह आनंद-भवन सजाया गया था जिसके बनाने में शिल्प-विशारदों ने अपूर्व कौशल का परिचय दिया था। श्रृंगार-चतुराओं ने दुलहिन को खूब सँवारा। रसीले राजासाहब अधरामृत के लिए विह्वल हो रहे थे, अंतःपुर में गए। प्रभा ने हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर उनका अभिवादन किया। उसकी आँखों से आँसू की नदी बह रही थी। पति ने प्रेम के मद में मत्त होकर घूँघट हटा दिया। दीपक था, पर बुझा हुआ। फूल था, पर मुरझाया हुआ। दूसरे दिन से राजासाहब की यह दशा हुई कि भौंरे की तरह प्रतिक्षण इस फूल पर मँडराया करते। न राजपाट की चिंता थी, न सैर और शिकार की परवाह। प्रभा की वाणी रसीला राग थी, उसकी चितवन सुख का सवार और उसका मुखचंद्र आमोद का सुहावना पुंज था। बस प्रेम-मद में राजासाहब बिलकुल मतवाले हो गए थे। उन्हें क्या मालूम था कि दूध में मक्खी है।
यह असंभव था कि राजासाहब के हृदयहारी और सरस व्यवहार का प्रभा पर कोई प्रभाव न पड़ता, जिसमें सच्चा अनुराग भरा हुआ था। प्रेम का प्रकाश अँधेरे हृदय को भी चमका देता है। प्रभा मन में बहुत लज्जित होती। वह अपने को इस निर्मल और विशुद्ध प्रेम के योग्य न पाती थी। इस पवित्र-प्रेम के बदले में उसे अपने कृत्रिम, रंगे हुए भाव प्रकट करते हुए मानसिक कष्ट होता था। जब तक कि राजासाहब उसके साथ रहते वह उनके गले में लता की भाँति लपटी हुई घंटों प्रेम की बातें किया करती।
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