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			 कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 20 प्रेमचन्द की कहानियाँ 20प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बीसवाँ भाग
'मुझे घर के धन्धों की रत्ती-भर भी परवा नहीं बाल की नोक बराबर भी नहीं। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारा मिजाज बिगड़े और तुम गृहस्थी की चक्की से दूर रहो और तुम मुझे बार-बार आप क्यों कहती हो? मैं चाहता हूँ, तुम मुझे तुम कहो, तू कहो, गालियाँ दो, धौल जमाओ। तुम तो मुझे आप कहके जैसे देवता के सिंहासन पर बैठा देती हो ! मैं अपने घर में देवता नहीं, चंचल बालक बनना चाहता हूँ।' 
आशा ने मुस्कराने की चेष्टा करके कहा, 'भला, मैं आपको 'तुम' कहूँगी। तुम बराबर वाले को कहा, जाता है कि बड़ों को?' 
मुनीम ने एक लाख के घाटे की खबर सुनायी होती, तो भी शायद लालाजी को इतना दु:ख न होता, जितना आशा के इन कठोर शब्दों से हुआ। उनका सारा उत्साह, सारा उल्लास जैसे ठंडा पड़ गया। सिर पर बाँकी रखी हुई फूलदार टोपी, गले में पड़ी हुई जोगिये रंग की चुनी हुई रेशमी चादर, वह तंजेब का बेलदार कुर्त्ता, जिसमें सोने के बटन लगे हुए थे यह सारा ठाठ कैसे उन्हें हास्यजनक जान पड़ने लगा, जैसे वह सारा नशा किसी मन्त्र से उतर गया हो। निराश होकर बोले, 'तो तुम्हें चलना है या नहीं।' 
'मेरा जी नहीं चाहता।' 
'तो मैं भी न जाऊँ?' 
'मैं आपको कब मना करती हूँ?' 
'फिर 'आप' कहा?' 
आशा ने जैसे भीतर से जोर लगाकर कहा, 'तुम' और उसका मुखमण्डल लज्जा से आरक्त हो गया। 
'हाँ, इसी तरह 'तुम' कहा, करो। तो तुम नहीं चल रही हो? अगर मैं कहूँ, तुम्हें चलना पड़ेगा?' 
'तब चलूँगी। आपकी आज्ञा मानना मेरा धर्म है।' 
लालाजी आज्ञा न दे सके। आज्ञा और धर्म जैसे शब्द उनके कानों में चुभने-से लगे। खिसियाये हुए बाहर को चल पड़े; उस वक्त आशा को उन पर दया आ गयी। बोली, 'तो कब तक लौटोगे?' 
'मैं नहीं जा रहा हूँ।' 
			
						
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