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प्रेमचन्द की कहानियाँ 21

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :157
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9782
आईएसबीएन :9781613015193

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इक्कीसवाँ भाग


मोटे- 'मैं तो जानता हूँ, रानी ने जान-बूझ कर कुत्ते को बुला लिया।'

सोना- 'मैं तो ओकरा मुँह देखत ताड़ गयी कि हमका पहचान गयी।'

इधर तो ये लोग पछताते चले जाते थे, उधर चिंतामणि की पाँचों अँगुली घी में थीं। आसन मारे भोजन कर रहे थे। रानी अपने हाथों से मिठाइयाँ परोस रही थीं; वार्त्तालाप भी होता जाता था।

रानी- 'बड़ा धूर्त्त है? मैं बालकों को देखते ही समझ गयी। अपनी स्त्री को भेष बदल कर लाते उसे लज्जा न आयी।'

चिंता.- 'मुझे कोस रहे होंगे ! '

रानी- 'मुझसे उड़ने चला था। मैंने भी कहा था, बच्चा, तुमको ऐसी शिक्षा दूँगी कि उम्र भर याद करोगे। टामी को बुला लिया।'

चिंता.- 'सरकार की बुद्धि धन्य है !'

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5. निर्वासन

परशुराम: वहीं, वहीं दालान में ठहरो!

मर्यादा: क्यों, क्या मुझमें कुछ छूत लग गई!

परशुराम: पहले यह बताओ तुम इतने दिनों से कहां रहीं, किसके साथ रहीं, किस तरह रहीं और फिर यहां किसके साथ आयीं? तब, तब विचार... देखी जाएगी।

मर्यादा: क्या इन बातों को पूछने का यही वक्त है; फिर अवसर न मिलेगा?

परशुराम: हां, यही बात है। तुम स्नान करके नदी से तो मेरे साथ ही निकली थीं। मेरे पीछे-पीछे कुछ देर तक आयीं भी; मैं पीछे फिर-फिर कर तुम्हें देखता जाता था, फिर एकाएक तुम कहां गायब हो गयीं?

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