कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 21 प्रेमचन्द की कहानियाँ 21प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इक्कीसवाँ भाग
परशुराम: तो तुम उस आदमी के साथ चल दी? वह कौन था?
मर्यादा: क्या बतलाऊं कौन था? मैं तो समझती हूं, कोई दलाल था?
परशुराम: तुम्हें यह न सूझी कि उससे कहतीं, जा कर बाबू जी को भेज दो?
मर्यादा: अदिन आते हैं तो बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।
परशुराम: कोई आ रहा है।
मर्यादा: मैं गुसलखाने में छिपी जाती हूं।
परशुराम: आओ भाभी, क्या अभी सोयी नहीं, दस तो बज गए होंगे।
भाभी: वासुदेव को देखने को जी चाहता था भैया, क्या सो गया?
परशुराम: हां, वह तो अभी रोते-रोते सो गया।
भाभी: कुछ मर्यादा का पता मिला? अब पता मिले तो भी तुम्हारे किस काम की। घर से निकली स्त्रियां थान से छूटी हुई घोड़ी हैं। जिसका कुछ भरोसा नहीं।
परशुराम: कहां से कहां लेकर मैं उसे नहाने लगा।
भाभी: होनहार हैं, भैया होनहार। अच्छा, तो मैं जाती हूं।
मर्यादा: (बाहर आकर) होनहार नहीं हूं, तुम्हारी चाल है। वासुदेव को प्यार करने के बहाने तुम इस घर पर अधिकार जमाना चाहती हो।
परशुराम- बको मत! वह दलाल तुम्हें कहां ले गया।
मर्यादा: स्वामी, यह न पूछिए, मुझे कहते लज्जा आती है।
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