कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 21 प्रेमचन्द की कहानियाँ 21प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इक्कीसवाँ भाग
परशुराम: मैं यह सब सोच चुका और निश्चय कर चुका। आज छ: दिन से यह सोच रहा हूं। तुम जानती हो कि मुझे समाज का भय नहीं। छूत-विचार को मैंने पहले ही तिलांजली दे दी, देवी-देवताओं को पहले ही विदा कर चुका: पर जिस स्त्री पर दूसरी निगाहें पड चुकी, जो एक सप्ताह तक न-जाने कहां और किस दशा में रही, उसे अंगीकार करना मेरे लिए असम्भव है। अगर अन्याय है तो ईश्वर की ओर से है, मेरा दोष नहीं।
मर्यादा: मेरी विवशता पर आपको जरा भी दया नहीं आती?
परशुराम: जहां घृणा है, वहां दया कहां? मैं अब भी तुम्हारा भरण-पोषण करने को तैयार हूं। जब तक जीऊंगा, तुम्हें अन्न-वस्त्र का कष्ट न होगा पर तुम मेरी स्त्री नहीं हो सकतीं।
मर्यादा: मैं अपने पुत्र का मुंह न देखूं अगर किसी ने स्पर्श भी किया हो।
परशुराम: तुम्हारा किसी अन्य पुरुष के साथ क्षण-भर भी एकान्त में रहना तुम्हारे पतिव्रत को नष्ट करने के लिए बहुत है। यह विचित्र बंधन है, रहे तो जन्म-जन्मान्तर तक रहे: टूटे तो क्षण-भर में टूट जाए। तुम्हीं बताओ, किसी मुसलमान ने जबरदस्ती मुझे अपना उच्छिट भोजन खिला दिया होता तो मुझे स्वीकार करतीं?
मर्यादा: वह.... वह.. तो दूसरी बात है।
परशुराम: नहीं, एक ही बात है। जहां भावों का सम्बन्ध है, वहां तर्क और न्याय से काम नहीं चलता। यहां तक अगर कोई कह दे कि तुम्हारे पानी को मेहतर ने छू निया है तब भी उसे ग्रहण करने से तुम्हें घृणा आयेगी। अपने ही दिन से सोचो कि तुम्हारे साथ न्याय कर रहा हूं या अन्याय।
मर्यादा: मैं तुम्हारी छुई चीजें न खाती, तुमसे पृथक रहती पर तुम्हें घर से तो न निकाल सकती थी। मुझे इसलिए न दुत्कार रहे हो कि तुम घर के स्वामी हो और कि मैं इसका पालन करती हूं।
परशुराम: यह बात नहीं है। मैं इतना नीच नहीं हूं।
मर्यादा: तो तुम्हारा यहीं अंतिम निश्चय है?
परशुराम: हां, अंतिम।
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