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प्रेमचन्द की कहानियाँ 21

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :157
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9782
आईएसबीएन :9781613015193

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इक्कीसवाँ भाग


सारी महफिल बेसुध हो रही थी। मगर अक्षयबाबू का जी वहाँ न लगता था वह बार-बार उठके बाहर जाते, इधर-उधर बेचैनी से आँखें फाड़-फाड़ देखते और हर बार झुंझलाकर वापस आते। यहाँ तक कि बारह बज गए और अब मायूस होकर उन्होंने अपने-आप को कोसना शुरू किया- मैं भी कैसा अहमक हूँ। एक शोख औरत के चकमे में आ गया। जरूर इन्हीं बदमाशों में से किसी की शरारत होगी। यह लोग मुझे देख-देखकर कैसा हँसते थे! इन्हीं में से किसी मसखरे ने यह शिगूफा छोड़ा है। अफसोस ! सैकड़ों रुपये पर पानी फिर गया, लज्जित हुआ सो अलग। कई मुकदमें हाथ से गए। हेमवती की निगाहों में जलील हो गया और यह सब सिर्फ इन हाहियों की खातिर ! मुझसे बड़ा अहमक और कौन होगा !

इस तरह अपने ऊपर लानत भेजते, गुस्से में भरे हुए वे फिर महाफिल की तरफ चले कि एकाएक एक सरो के पेड़ के नीचे वह हरितवसना सुन्दरी उन्हें इशारे से अपनी तरफ बुलाती हुई नजर आयी। खुशी के मारे उनकी बाँछें खिल गई, दिलोंदिमाग पर एक नशा-सा छा गया। मस्ती के कदम उठाते, झूमते और ऐंठते उस स्त्री के पास आये और आशिकाना जोश के साथ बोले- ऐ रूप की रानी, मैं तुम्हारी इस कृपा के लिए हृदय से तुम्हारा कृतज्ञ हूँ। तुम्हें देखने के शौक में इस अधमरे प्रेमी की आँखें पथरा गई और अगर तुम्हें कुछ देर तक और यह आँखें देख न पातीं तो तुम्हें अपने रूप के मारे हुए की लाश पर हसरत के आँसू बहाने पड़ते। कल शाम ही से मेरे दिल की जो हालत हो रही है, उसका जिक्र बयान की ताकत से बाहर हैं। मेरी जान, मैं कल कचहरी न गया, और कई मुकदमें हाथ से खोए। मगर तुम्हारे दर्शन से आत्मा को जो आनन्द मिल रहा है, उस पर मैं अपनी जान भी न्योछावर कर ससकता हूँ। मुझे अब धैर्य नहीं है। प्रेम की आग ने संयम और धैर्य को जलाकर खाक कर दिया है। तुम्हें अपने हुस्न के दीवाने से यह पर्दा करना शोभा नहीं देता। शमा और परवाना में पर्दा कैसा। रूप की खान और ऐ सौन्दर्य की आत्मा ! तेरी मुहब्बत भरी बातों ने मेरे दिल में आरजुओं का तूफान पैदा कर दिया है। अब यह दिल तुम्हारे ऊपर न्योछावर है और यह जान तुम्हारे चरणों पर अर्पित है।

यह कहते हुए बाबू अक्षयकुमार ने आशिकों जैसी ढिठाई से आगे बढ़कर उस हरितवसना सुन्दरी का घूँघट उठा दिया और हेमवती को मुस्कराते देखकर बेअख्तियार मुँह से निकला- अरे ! और फिर कुछ मुंह से न निकला। ऐसा मालूम हुआ कि जैसे आँखों के सामने से पर्दा हट गया। बोले– यह सब तुम्हारी शरारत थी?

सुन्दर, हँसमुख हेमवती मुस्करायी और कुछ जवाब देना चाहती थी, मगर बाबू अक्षयकुमार ने उस वक्त ज्यादा सवाल-जवाब का मौका न देखा। बहुत लज्जित होते हुए बोले- हेमवती, अब मुंह से कुछ मत कहो, तुम जीतीं मैं हार गया। यह हार कभी न भूलेगी।

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2. नागपूजा

प्रात:काल था। आषाढ़ का पहला दौंगड़ा निकल गया था। कीट-पतंगे चारों तरफ रेंगते दिखायी देते थे। तिलोत्तमा ने वाटिका की ओर देखा तो वृक्ष और पौधे ऐसे निखर गये थे जैसे साबुन से मैले कपड़े निखर जाते हैं। उन पर एक विचित्र आध्यात्मिक शोभा छाई हुई थी मानों योगीवर आनंद में मग्न पड़े हों। चिड़ियों में असाधारण चंचलता थी। डाल-डाल, पात-पात चहकती फिरती थीं। तिलोत्तमा बाग में निकल आयी। वह भी इन्हीं पक्षियों की भॉँति चंचल हो गयी थी। कभी किसी पौधे को देखती, कभी किसी फूल पर पड़ी हुई जल की बूँदों को हिलाकर अपने मुँह पर उनके शीतल छींटे डालती। लाल बीरबहूटियाँ रेंग रही थी। वह उन्हें चुनकर हथेली पर रखने लगी। सहसा उसे एक काला वृहत्काय सॉँप रेंगता दिखायी-दिया। उसने चिल्लाकर कहा- अम्माँ, नागजी जा रहे हैं। लाओ थोड़ा-सा दूध उनके लिए कटोरे में रख दूं।

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