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प्रेमचन्द की कहानियाँ 23

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :137
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9784
आईएसबीएन :9781613015216

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेइसवाँ भाग


काटन- आप वहां किसी के नाम चिट्ठी दे सकता है कि मेरे ठहरने का बंदोबस्त कर दें। हम किफायत से काम करना चाहता है। आप तो हर साल जाता है, हमारे साथ क्यों नहीं चलता।

खां साहब बड़ी मुश्किल में फंसे। अब बचाव का कोई उपाय न था। कहना पड़ा- जैसा हुजूर के साथ ही चला चलूंगा। मगर मुझे अभी जरा देर है हुजूर।

काटन- ओ कुछ परवाह नहीं, हम आपके लिए एक हफ्ता ठहर सकता है। अच्छा सलाम। आज ही आप अपने दोस्त को जगह का इन्तजाम करने को लिख दें। आज के सातवें दिन हम और आप साथ चलेगा। हम आपको रेलवे स्टेशन पर मिलेगा।

खां साहब ने सलाम किया, और बाहर निकले। तांगे वाले से कहा- कुंअर शमशेर सिंह की कोठी पर चलो।

कुंअर शमशेर सिंह खानदानी रईस थे। उन्हें अभी तक अंग्रेजी रहन-सहन की हवा न लगी थी। दस बजे दिन तक सोना, फिर दोस्तों और मुसाहिबों के साथ गपशप करना, दो बजे खाना खाकर फिर सोना, शाम को चौक की हवा खाना और घर आकर बारह-एक बजे तक किसी परी का मुजरा देखना, यही उनकी दिनचर्या थी। दुनिया में क्या होता है, इसकी उन्हें कुछ खबर न होती थी। या हुई भी तो सुनी-सुनाई। खां साहब उनके दोस्तों में थे। जिस वक्त खां साहब कोठी में पहुंचे दस बज गये थे, कुंअर साहब बाहर निकल आये थे, मित्रगण जमा थे। खां साहब को देखते ही कुंअर साहब ने पूछा- कहिए खां, साहब, किधर से?

खां साहब- जरा साहब से मिलने गया था। कई दिन बुला-बुला भेजा, मगर फुर्सत ही न मिलती थी। आज उनका आदमी जबर्जस्ती खींच ले गया। क्या करता, जाना ही पड़ा। कहां तक बेरूखी करूं।

कुंअर- यार, तुम न जाने अफसरों पर क्या जादू कर देते हो कि जो आता है तुम्हारा दम भरने लगता है। मुझे वह मन्त्र क्यों नहीं सिखा देते।

खां- मुझे खुद ही नहीं मालूम कि क्यों हुक्काम मुझ पर इतने मेहरबान रहते हैं। आपको यकीन न आवेगा, मेरी आवाज सुनते ही कमरे के दरवाजे पर आकर खड़े हो गये और ले जाकर अपनी खास कुर्सी पर बैठा दिया।

कुंअर- अपनी खास कुर्सी पर?

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