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प्रेमचन्द की कहानियाँ 23

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :137
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9784
आईएसबीएन :9781613015216

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेइसवाँ भाग


खां- तो यह इतने अंग्रेज वहां क्यों जाते हैं साहब? ये लोग अपने वक्त के लुकमान हैं। इनका कोई काम मसलहत से खाली नहीं होता? पहाड़ों की सैर से कोई फायदा न होता तो क्यो जाते, जरा यह तो सोचिए।

व्यास- यही सोच-सोचकर तो हमारे रईस अपना सर्वनाश कर रहे हैं। उनकी देखा-देखी धन का नाश, धर्म का नाश, बल का नाश होता चला जाता है, फिर भी हमारी आंखें नहीं खुलतीं।

लाला- मेरे पिता जी एक बार किसी अंग्रेज के साथ पहाड़ पर गये। वहां से लौटे तो मुझे नसीहत की कि खबरदार, कभी पहाड़ पर न जाना। आखिर कोई बात देखी होगी, जभी तो यह नसीहत की।

वाजिद- हुजूर, खां साहब जाते हैं जाने दीजिए, आपको मैं जाने की सलाह न दूंगा। जरा सोचिए, कोसों की चढ़ाई, फिर रास्ता इतना खतरनाक कि खुदा की पनाह! जरा-सी पगड़डी और दोनों तरफ कोसों का खड्ड। नीचे देखा ओर थरथरा कर आदमी गिर पड़ा और जो कहीं पत्थरों में आग लग गई, तो चलिए वारा-न्यारा हो गया। जल-भुन के कबाब हो गये।

खां- और जो लाखों आदमी पहाड़ पर रहते हैं?

वाजिद- उनकी और बात है भाई साहब।

खां- और बात कैसी? क्या वे आदमी नहीं हैं?

वाजिद- लाखों आदमी दिन-भर हल जोतते हैं, फावड़े चलाते हैं, लकड़ी फाड़ते हैं, आप करेंगे? है आपमें इतनी दम? हुजूर उस चढ़ाई पर चढ़ सकते हैं?

खां- क्यों नहीं टट्टुओं पर जाएंगे।

वाजिद- टट्टुओं पर छ:कोस की चढ़ाई! होश की दवा कीजिए।

कुंअर- टट्टुओं पर! भई हमसे न जाया जायगा। कहीं टट्टू भड़के तो कहीं के न रहे।

लाला- गिरे तो हड्डियां तक न मिलें!

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