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प्रेमचन्द की कहानियाँ 23

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :137
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9784
आईएसबीएन :9781613015216

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेइसवाँ भाग


डॉक्टर– तो तुम्हारा आम तोड़ना साबित है !

दुर्गा– अब सरकार जो चाहें, समझें। मान लीजिए, मैंने ही आम तोड़े तो आपका गुलाम ही तो हूँ। रात-दिन ताबेदारी करता हूँ, बाल-बच्चे आमों के लिए रोवें तो कहाँ जाऊँ। अबकी जान बकसी जाय, फिर ऐसा कसूर न होगा।

डॉक्टर महोदय इतने उदार न थे। उन्होंने यही बड़ा उपकार किया कि दुर्गा को पुलिस के हवाले न किया और हंटर न लगाये। उसकी इस धार्मिक श्रद्धा ने उन्हें कुछ नर्म कर दिया था। मगर दुर्बल हृदय को अपने यहाँ रखना असम्भव था। उन्होंने उसी क्षण दुर्गा को  जवाब दे दिया और उसकी आधे महीने की बाकी मजूरी जप्त कर ली।

कई मास के पश्चात् एक दिन डॉक्टर मेहरा बाबू  प्रेमशंकर के बाग की सैर करने गये। वहाँ से कुछ अच्छी-अच्छी कलमें लाना चाहते थे। प्रेमशंकर को भी  बागवानी से प्रेम था और दोनों मनुष्यों में यही समानता थी, अन्य सभी विषयों में एक दूसरे से भिन्न थे। प्रेमशंकर बड़े संतोषी, सरल सहृदय मनुष्य थे। वे कई साल अमेरिका रह चुके थे। वहाँ उन्होंने कृषि-विज्ञान का खूब अध्ययन किया था और यहाँ आ कर इस वृत्ति को अपनी जीविका का आधार बना लिया था। मानव-चरित्र और वर्तमान सामाजिक संगठन के विषय में उनके विचार विचित्र थे। इसीलिए शहर के सभ्य समाज में लोग उनकी उपेक्षा करते थे और उन्हें झक्की समझते थे। इसमें संदेह नहीं कि उनके सिद्धान्तों से लोगों को एक प्रकार की दार्शनिक सहानुभूति थी, पर उनके क्रियात्मक होने के विषय में उन्हें बड़ी शंका थी। संसार कर्मक्षेत्र है, मीमांसा क्षेत्र नहीं। यहाँ सिद्धांत सिद्धांत, ही रहेंगे, उनका प्रत्यक्ष घटनाओं से सम्बन्ध नहीं।

डॉक्टर साहब बगीचे में पहुँचे तो उन्होंने प्रेमशंकर को क्यारियों में पानी देते हुआ पाया। कुएँ पर एक मनुष्य खड़ा पम्प से पानी निकाल रहा था। मेहरा ने उसे तुरंत ही पहचान लिया। वह दुर्गा माली था। डॉक्टर साहब के मन में उस समय दुर्गा के प्रति एक विचित्र ईर्ष्या का भाव उत्पन्न हुआ। जिस नराधम को उन्होंने दंड दे कर अपने यहाँ से अलग कर दिया था, उसे नौकरी क्यों मिल गयी? यदि दुर्गा इस वक्त फटेहाल रोनी सूरत बनाये दिखाई देता तो डॉक्टर साहब को उस पर दया आ जाती। वे सम्भवतः उसे कुछ इनाम देते और प्रेमशंकर से उसकी प्रशंसा भी कर देते। उनकी प्रकृति में दया थी। और अपने नौकरों पर उनकी कृपादृष्टि रहती थी। परंतु उनकी इस कृपा और दया में लेशमात्र भी भेद न था, जो अपने कुत्तों और घोड़ों से थी। इस कृपा का आधार न्याय नहीं, दीन-पालन है। दुर्गा ने उन्हें देखा, कुएँ पर खड़े-खडे सलाम किया और फिर अपने काम में लग गया। उसका यह अभिमान डॉक्टर साहब के हृदय में भाले की भाँति चुभ गया। उन्हें यह विचार कर अत्यंत क्रोध आया कि मेरे यहाँ से निकलना इसके लिए हितकर हो गया। उन्हें अपनी सहृदयता पर जो घमंड था, उसे बड़ा आघात लगा। प्रेमशंकर ज्योंही उनसे हाथ मिला कर क्यारियों की सैर कराने लगे, त्योंही डॉक्टर साहब ने उनसे पूछा– यह आदमी आपके यहाँ कितने दिनों से है?

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