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प्रेमचन्द की कहानियाँ 23

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :137
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9784
आईएसबीएन :9781613015216

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेइसवाँ भाग


प्रेमशंकर– मैं यह कब कहता हूँ कि प्रत्येक मनुष्य को मजूरी करने पर मजबूर किया जाय! नहीं जिसे परमात्मा ने विचार की शक्ति दी है, वह शास्त्रों की विवेचना करे। जो भावुक हो, काव्य की रचना करे। जो अन्याय से घृणा करता हो वह वकालत करे। मेरा कथन यह है कि विभिन्न कार्यों की हैसियत में इतना अंतर न रहना चाहिए। मानसिक और औद्योगिक कार्यों में इतना फर्क न्याय के विरुद्ध है। यह प्रकृति के नियमों के प्रतिकूल ज्ञात होता है कि आवश्यक और अनिवार्य कार्यों पर अनावश्यक और अनिवार्य कार्यों की प्रधानता हो। कतिपय सज्जनों का मत है कि इस साम्य से गुणी लोगों का अनादर होगा और संसार को उनके सद्विचारों और सत्कार्यों से लाभ न पहुँच सकेगा। किंतु वे भूल जाते हैं कि संसार के बड़े-से-बड़े पंडित, बड़े से बड़े कवि, बड़े से बड़े आविष्कारक, बड़े से बड़ा शिक्षक धन और प्रभुता के लोभ से मुक्त थे। हमारे अस्वाभाविक जीवन का एक कुपरिणाम यह भी है कि हम बलात् कवि और शिक्षक बन जाते हैं। संसार में आज अनगिनत लेखक और कवि, वकील और शिक्षक उपस्थित हैं। वे सब के सब पृथ्वी पर भार-रूप हो रहे हैं। जब उन्हें मालूम होगा कि इन दिव्य कलाओं में कुछ लाभ नहीं है तो वही लोग कवि होंगे, जिन्हें कवि होना चाहिए। संक्षेप में कहना यही है कि धन की प्रधानता ने हमारे समस्त समाज को उलट-पलट दिया है।

डॉक्टर मेहरा अधीर हो गये; बोले– महाशय, समाज-संगठन का यह रूप देवलोक के लिए चाहे उपयुक्त हो, पर भौतिक संसार के लिए और इस भौतिक काल में कदापि उपयोगी नहीं हो सकता।

प्रेमशंकर– केवल इसी कारण से अभी तक धनवानों का, जमींदारों का और शिक्षित समुदाय का प्रभुत्व जमा हुआ है। पर इसके पहले भी, कई बार इस प्रभुत्व को धक्का लग चुका है। और चिह्नों से ज्ञात होता है कि निकट भविष्य में फिर इसकी पराजय होने वाली है। कदाचित् वह हार निर्णयात्मक होगी। समाज का चक्र साम्य से आरम्भ होकर फिर साम्य पर ही समाप्त होता है। एकाधिपत्य, रईसों का प्रभुत्व और वाणिज्य-प्राबल्य, उसकी मध्यवर्ती दशायें हैं। वर्तमान चक्र ने मध्यवर्ती दशाओं को भोग लिया है और वह अपने अन्तिम स्थान के निकट आता-जाता है। किन्तु हमारी आँखें अधिकार और प्रभुता के मद में ऐसी भरी हुई हैं कि हमें आगे-पीछे कुछ नहीं सूझता। चारों ओर से जनतावाद का घोर नाद हमारे कानों में हो रहा है, पर हम ऐसे निश्चिंत हैं मानों वह साधारण मेघ की गरज है। हम अभी तक उन्हीं विद्याओं और कलाओं में लीन हैं जिनका आश्रय दूसरों की मेहनत है। हमारे विद्यालयों की संख्या बढ़ती जाती है, हमारे वकीलखाने में पाँव रखने की जगह बाकी नहीं, गली-गली फोटो स्टूडियो खुल रहे हैं, डॉक्टरों की संख्या मरीजों से भी अधिक हो गयी है, पर अब भी हमारी आँखें नहीं खुलतीं। हम इस अस्वाभाविक जीवन इस सभ्यता के तिलिस्म से बाहर निकलने की चेष्टा नहीं करते। हम शहरों में कारखाने खोलते फिरते हैं, इस लिए कि मजदूरों की मेहनत से मोटे हो जायँ। 30 रु० और 40 रु० सैकड़े लाभ की कल्पना करके फूले नहीं समाते, पर ऐसा कहीं देखने में नहीं आता कि किसी शिक्षित सज्जन ने कपड़ा बुनना या जमीन जोतना  शुरू किया हो। यदि कोई दुर्भाग्यवश ऐसा करे भी तो उसकी हँसी उड़ायी जाती है। हम उसी को मान-प्रतिष्ठा के योग्य समझते हैं, जो तकिया-गद्दी लगाये बैठा रहे, हाथ-पैर न हिलाये और लेन-देन पर, सूद-बट्टे पर लाखों के वारे-न्यारे करता हो...।

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