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प्रेमचन्द की कहानियाँ 24

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9785
आईएसबीएन :9781613015223

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौबीसवाँ भाग


‘बेटे की बरात में खुद अपना स्वामी रहूंगा।’

‘तो समझ लीजिए यह आप ही का पुत्र है और आप यहाँ अपने स्वामी हैं।’

मैं निरुत्तर हो गया। फिर भी मैंने अपना पक्ष न छोड़ा।

‘आप लोग वहां कन्यापक्षवालों से सिगरेट बर्फ, तेल, शराब आदि-आदि चीजों के लिए आग्रह तो न करेंगे?’

‘भूलकर भी नहीं, इस विषय में मेरे विचार वही हैं जो आपके।’

‘ऐसा तो न होगा कि मेरे जैसे विचार रखते हुए भी आप वही दुराग्रहियों की बातों में आ जाएं और वे अपने हथकन्डे शुरू कर दें?’

‘मैं आप ही को अपना प्रतिनिधि बनाता हूं। आपके फैसले की वहां कहीं अपील न होगी।’

दिल में तो मेरे अब भी कुछ संशय था, लेकिन इतना आश्वासन मिलने पर और ज्यादा अड़ना असज्जनता थी। आखिर मेरे वहां जाने से यह बेचारे तर तो नहीं जाएंगे। केवल मुझसे स्नेह रखने के कारण ही तो सब कुछ मेरे हाथों में सौंप रहे हैं। मैंने चलने का वादा कर लिया। लेकिन जब सुरेश बाबू विदा होने लगे तो मैंने घड़े को जरा और ठोका- ‘लेन-देन का तो कोई झगड़ा नहीं है?’

‘नाम को नहीं। वे लोग अपनी खुशी से जो कुछ देंगे, वह हम ले लेंगे। मांगने न मांगने का अधिकार तो आपको रहेगा।’

‘अच्छी बात है, मैं चलूंगा।’

शुक्रवार को बरात चली। केवल रेल का सफर था और वह भी पचास मील का। तीसरे पहर के एक्सप्रेस से चले और शाम को कन्या के द्वार पर पहुंच गए। वहां हर तरह का सामान मौजूद था। किसी चीज के मांगने की जरूरत न थी। बरातियों की इतनी खातिरदारी भी हो सकती है, इसकी मुझे कल्पना भी न थी। घराती इतने विनीत हो सकते हैं, कोई बात मुंह से निकली नहीं कि एक की जगह चार आदमी हाथ बांधे हाजिर!

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