कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 24 प्रेमचन्द की कहानियाँ 24प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौबीसवाँ भाग
‘छुरी फेर ली?’
‘जी हाँ, आज सबेरे मालूम हुआ। पुलिसवाले जमा हैं। आपको बुलाया है।‘
‘लाश अभी पड़ी हुई है?
‘जी हाँ, अभी डाक्टरी होने वाली है।‘
‘बहुत से लोग जमा हैं?’
‘सब बड़े-बड़ अफसर जमा हैं। हुजूर, लहास की ओर ताकते नहीं बनता। कैसा भलामानुष हीरा आदमी था! सब लोग रो रहे हैं। छोडे-छोटे दो बच्चे हैं, एक सयानी लड़की है ब्याहने लायक। बहू जी को लोग कितना रोक रहे हैं, पर बार-बार दौड़ कर लहास के पास आ जाती हैं। कोई ऐसा नहीं है, जो रूमाल से आँखें न पोछ रहा हो। अभी इतने ही दिन आये हुए, पर सबसे कितना मेल-जोल हो गया था। रुपये की तो कभी परवा ही नहीं थी। दिल दरियाब था!’
मदारीलाल के सिर में चक्कर आने लगा। द्वार की चौखट पकड़ कर अपने को सँभाल न लेते, तो शायद गिर पड़ते। पूछा- बहू जी बहुत रो रही थीं?
‘कुछ न पूछिए, हुजूर। पेड़ की पत्तियॉँ झड़ी जाती हैं। आँख फूल गर गूलर हो गयी है।‘
‘कितने लड़के बतलाये तुमने?’
‘हुजूर, दो लड़के हैं और एक लड़की।‘
‘नोटों के बारे में भी बातचीत हो रही होगी?’
‘जी हाँ, सब लोग यही कहते हैं कि दफ्तर के किसी आदमी का काम है। दारोगा जी तो सोहनलाल को गिरफ्तार करना चाहते थे; पर साइत आपसे सलाह लेकर करेंगे। सिकट्टरी साहब तो लिख गए हैं कि मेरा किसी पर शक नहीं है।‘
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