कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 25 प्रेमचन्द की कहानियाँ 25प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पच्चीसवाँ भाग
गंगी रोज सोचती- वह आते होंगे, पर ठाकुर न आये। फिर होली आयी। फिर गाँव में फाग होने लगा। रमणियों ने फिर गुलाबी साडिय़ाँ पहनीं। फिर रंग घोला गया। मैकू ने भंग, चरस, गाँजा मँगवाया। गंगी ने फिर मीठी और नमकीन भंग बनाई! द्वार पर टाट बिछ गया। व्यवहारी लोग आने लगे। मगर कोठार से कोई नहीं आया। शाम हो गयी। किसी का पता नहीं! गंगी बेकरार थी। कभी भीतर जाती, कभी बाहर आती। भाई से पूछती- क्या कोठार वाले नहीं आये? भाई कहता- नहीं। दादा से पूछती- भंग तो नहीं बची, कोठार वाले आवेंगे तो क्या पीयेंगे? दादा कहते- अब क्या रात को आवेंगे, सामने तो गाँव है। आते होते तो दिखाई देते।
रात हो गयी, पर गंगी को अभी तक आशा लगी हुई थी। वह मन्दिर के ऊपर चढ़ गयी और कोठार की ओर निगाह दौड़ाई। कोई न आता था।
सहसा उसे उसी सिवाने की ओर आग दहकती हुई दिखाई दी। देखते-देखते ज्वाला प्रचण्ड हो गयी। यह क्या! वहाँ आज होली जल रही है। होली तो कल ही जल गयी। कौन जाने वहाँ पण्डितों ने आज होली जलाने की सायत बतायी हो। तभी वे लोग आज नहीं आये। कल आएँगे।
उसने घर आकर मैकू से कहा- दादा, कोठार में तो आज होली जली है।
मैकू- दुत् पगली! होली सब जगह कल जल गयी।
गंगी- तुम मानते नहीं हो, मैं मन्दिर पर से देख आयी हूँ। होली जल रही है। न पतियाते हो तो चलो, मैं दिखा दूँ।
मैकू- अच्छा चल देखूँ।
मैकू ने गंगी के साथ मन्दिर की छत पर आकर देखा। एक मिनट तक देखते रहे। फिर बिना कुछ बोले नीचे उतर आये।
गंगी ने कहा- है होली कि नहीं, तुम न मानते थे?
मैकू- होली नहीं है पगली-चिता है। कोई मर गया है। तभी आज कोठार वाले नहीं आये।
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