कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 25 प्रेमचन्द की कहानियाँ 25प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पच्चीसवाँ भाग
कृष्णा- क्यों छोड़ दूं? क्या वह आपकी स्त्री नहीं है? आप इस समय उसे घर में अकेली छोड़कर मुझसे क्या कहने के लिए आये हैं? यही कि उसकी चर्चा न करूं?
पशुपति- जी नहीं, यह कहने के लिए कि अब वह विरहाग्नि नहीं सही जाती।
कृष्णा ने ठठ्टा मारकर कहा- आप तो इस कला में बहुत निपुण जान पड़ते हैं। प्रेम! समर्पण! विरहाग्नि! यह शब्द आपने कहां सीखे!
पशुपति- कृष्णा, मुझे तुमसे इतना प्रेम है कि मैं पागल हो गया हूं।
कृष्णा- तुम्हें प्रभा से क्यों प्रेम नहीं है?
पशुपति- मैं तो तुम्हारा उपासक हूं।
कृष्णा- लेकिन यह क्यों भूल जाते हो कि तुम प्रभा के स्वामी हो?
पशुपति- तुम्हारा तो दास हूं।
कृष्णा- मैं ऐसी बातें नहीं सुनना चाहती।
पशुपति- तुम्हें मेरी एक-एक बात सुननी पड़ेगी। तुम जो चाहो वह करने को मैं तैयार हूं।
कृष्णा- अगर यह बातें कहीं वह सुन लें तो?
पशुपति- सुन ले तो सुन ले। मैं हर बात के लिए तैयार हूं। मैं फिर कहता हूं, कि अगर तुम्हारी मुझ पर कृपादृष्टि न हुई तो मैं मर जाऊंगा।
कृष्णा- तुम्हें यह बात करते समय अपनी पत्नी का ध्यान नहीं आता?
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