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प्रेमचन्द की कहानियाँ 25

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9786
आईएसबीएन :9781613015230

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पच्चीसवाँ भाग


प्रभा के मन के विद्रोह का भाव जाग्रत होने लगा। उसका आत्माभिमान जाता रहा। उसके मन में न जाने कितने भीषण संकल्प होते, किन्तु अपनी असमर्थता और दीनता पर आप ही आप रोने लगती। आह! उसका सर्वस्व उससे छीन लिया गया और अब संसार में उसका कोई मित्र नहीं, कोई साथी नहीं! पशुपति आजकल नित्य बनाव-सवार में मग्न रहता, नित्य नये-नये सूट बदलता। उसे आइने के सामने अपने बालों को संवारते देखकर प्रभा की आंखों से आंसू बहने लगते। यह सारी तैयारी उसी दुष्ट के लिए हो रही है। यह चिन्ता जहरीले सांप की भांति उसे डस लेती थी; वह अब अपने पति को प्रत्येक बात प्रत्येक गति को सूक्ष्म दृष्टि से देखती। कितनी ही बातें जिन पर वह पहले ध्यान भी न देती थी, अब रहस्य से भरी हुई जान पड़तीं। वह रात को न सोती, कभी पशुपति की जेब टटोलती, कभी उसकी मेज पर रक्खे हुए पत्रों को पढ़ती! इसी टोह में वह रात-दिन पड़ी रहती। वह सोचने लगी- मैं क्या प्रेम-वंचिता बनी बैठी रहूं? क्या मैं प्राणेश्वरी नहीं बन सकती? क्या इसे परित्यक्ता बनकर ही काटना होगा! आह निर्दयी तूने मुझे धोखा दिया। मुझसे आंखें फेर लीं। पर सबसे बड़ा अनर्थ यह किया कि मुझे जीवन का कलुषित मार्ग दिखा दिया। मैं भी विश्वासघात करके तुझे धोखा देकर क्या कलुषित प्रेम का आनन्द नहीं उठा सकती? अश्रुधारा से सींचकर ही सही, पर क्या अपने लिए कोई बाटिका नहीं लगा सकती? वह सामने के मकान में घुघंराले बालोंवाला युवक रहता है और जब मौका पाता है, मेरी ओर सचेष्ट नेत्रों से देखता। क्या केवल एक प्रेम-कटाक्ष से मैं उसके हृदय पर अधिकार नहीं प्राप्त कर सकती? अगर मैं इस भांति निष्ठुरता का बदला लूं तो क्या अनुचित होगा? आखिर मैंने अपना जीवन अपने पति को किस लिए सौंपा था? इसीलिए तो कि सुख से जीवन व्यतीत करूँ। चाहूं और चाही जाऊं और इस प्रेम-साम्राज्य की अधीश्वर बनी रहूं। मगर आह! वे सारी अभिलाषाएं धूल में मिल गईं। अब मेरे लिए क्या रह गया है? आज यदि मैं मर जाऊं तो कौन रोयेगा? नहीं, घी के चिराग जलाए जाएंगें। कृष्णा हंसकर कहेगी - अब बस हम है और तुम। हमारे बीच में कोई बाधा, कोई कंटक नहीं है।

आखिर प्रभा इन कलुषित भावनाओं के प्रवाह में बह चली। उसके हृदय में रातों को, निद्रा और आशविहीन रातों को बड़े प्रबल वेग से यह तूफान उठने लगा। प्रेम तो अब किसी अन्य पुरुष के साथ कर सकती थी, यह व्यापार तो जीवन में केवल एक ही बार होता है। लेकिन वह प्राणेश्वरी अवश्य बन सकती थी और उसके लिए एक मधुर मुस्कान, एक बांकी निगाह काफी थी। और जब वह किसी की प्रेमिका हो जायेगी तो यह विचार कि मैंने पति से उसकी बेवफाई का बदला ले लिया कितना आनन्दप्रद होगा! तब वह उसके मुख की ओर कितने गर्व, कितने संतोष, कितने उल्लास से देखेगी।

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