कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 27 प्रेमचन्द की कहानियाँ 27प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्ताइसवाँ भाग
फूलवती, ''मैं तुम्हें अपनी सूरत दिखाने नहीं आई हूँ।''
देवकीनाथ, ''तो फिर तिरिया-चरित्तर क्यों करती हो? क्यों नहीं किसी तरफ़ अपना मुँह काला कर लेतीं? मैं ऐसी औरतों के चरित्तर खूब जानता हूँ।''
फूलवती ने खूनी आँखों से देखकर कहा, ''जरा ज़बान सँभाल कर बातें करो, वरना मेरी आह पड़ जाएगी। मैं और सब-कुछ बर्दाश्त कर सकती हूँ अपमान बर्दाश्त नहीं कर सकती।''
देवकीनाथ ने गर्दन हिलाकर कहा, ''ऐसी ही तू बड़ी परम सती है?
फूलवती, ''जो खुद बेवफ़ा हैं, उन्हें दूसरों से वफ़ा की उम्मीद रखने का कोई हक़ नहीं।''
देवकीनाथ फ़ौरन मोटर पर से उतर आए। बोले, ''सामने से हटेगी या नहीं?''
फूलवती ने मुस्तकिल अंदाज़ से कहा, ''नहीं!''
देवकीनाथ दाँत पीसकर बोले, ''हट जा, नहीं तो मैं कुचल दूँगा और सारी शेखी धरी रह जाएगी।''
फूलवती, ''तुम्हें अख्तियार है। जो चाहो करो। मैंने एक बार कह दिया। मैं सबकुछ बर्दाश्त कर सकती हूँ अपमान नहीं बर्दाश्त कर सकती।''
देवकीनाथ, ''मैं फिर समझाए देता हूँ कि हट जा। नहीं तो मैं कुचल दूँगा। गधी कहीं की!''
फूलवती, ''तो निकाल लो दिल का अरमान ना! जबान क्यों खराब करते हो? मैं दिल में ठानकर आई हूँ कि मेरे जीते-जी तुम चैन न करने पाओगे।''
देवकीनाथ, ''मैंने कह तो दिया। जाकर किसी से अपनी शादी कर ले। मुझसे अधिकार-मुक्ति लिखा ले। मैं नहीं चाहता कि तू मेरे नाम को रोए।''
फूलवती, ''मेरी शादी तो अब भगवान के घर होगी, लेकिन जीते-जी यह सितम बर्दाश्त नहीं कर सकती।''
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