कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 27 प्रेमचन्द की कहानियाँ 27प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्ताइसवाँ भाग
मुझे इन शब्दों से घोर निराशा हुई। मैंने समझा था, वह उसकी बेवफाई की कथा कहेगा और मैं उसकी अन्ध-भक्ति पर कुछ सहानुभूति प्रकट करूँगा; मगर उस मूर्ख की आँखें अब तक नहीं खुलीं। अब भी उसी का मन्त्र पढ़ रहा है। अवश्य ही इसका चित्त कुछ अव्यवस्थित है।
मैंने कुटिल परिहास आरम्भ किया- 'तो तुम्हारे घर से कुछ नहीं ले गयी?
'कुछ भी नहीं बाबूजी, धेले की भी चीज नहीं।'
'और तुमसे प्रेम भी बहुत करती थी?'
'अब आपसे क्या कहूँ बाबूजी, वह प्रेम तो मरते दम तक याद रहेगा।'
'फिर भी तुम्हें छोड़कर चली गयी?'
'यही तो आश्चर्य है बाबूजी !'
'त्रिया-चरित्र का नाम कभी सुना है?'
'अरे बाबूजी, ऐसा न कहिए। मेरी गर्दन पर कोई छुरी रख दे, तो भी मैं उसका यश ही गाऊँगा।'
'तो फिर ढूँढ़ निकालो !'
'हाँ, मालिक। जब तक उसे ढूँढ़ न लाऊँगा, मुझे चैन न आयेगा। मुझे इतना मालूम हो जाय कि वह कहाँ है, फिर तो मैं उसे ले ही आऊँगा; और बाबूजी, मेरा दिल कहता है कि वह आयेगी जरूर। देख लीजिएगा। वह मुझसे रूठकर नहीं गयी; लेकिन दिल नहीं मानता। जाता हूँ, महीने-दो-महीने जंगल, पहाड़ की धूल छानूँगा। जीता रहा, तो फिर आपके दर्शन करूँगा।'
यह कहकर वह उन्माद की दशा में एक तरफ चल दिया।
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