कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 27 प्रेमचन्द की कहानियाँ 27प्रेमचंद
|
1 पाठकों को प्रिय 418 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्ताइसवाँ भाग
दीनानाथ ने शंका की, 'ज़ब उस पृष्ठ की नकल ही करनी है, तो उसे निकालने की क्या जरूरत है?'
सेठजी हँसे- तो क्या तुम समझते हो, 'उस पृष्ठ की हूबहू नकल करनी होगी ! मैं कुछ रकमों में परिवर्तन कर दूंगा। मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि मैं केवल कार्यालय की भलाई के खयाल से यह कार्रवाई कर रहा हूँ। अगर यह रद्दोबदल न किया गया, तो कार्यालय के एक सौ आदमियों की जीविका में बाधा पड़ जायगी। इसमें कुछ सोच-विचार करने की जरूरत ही नहीं। केवल आधा घंटे का काम है। तुम बहुत तेज लिखते हो।
कठिन समस्या थी। स्पष्ट था कि उससे जाल बनाने को कहा जा रहा है। उसके पास इस रहस्य का पता लगाने का कोई साधन न था कि सेठजी जो कुछ कह रहे हैं, वह स्वार्थवश होकर या कार्यालय की रक्षा के लिए; लेकिन किसी दशा में भी है यह जाल, घोर जाल। क्या वह अपनी आत्मा की हत्या करेगा? नहीं; किसी तरह नहीं।
उसने डरते-डरते कहा, 'मुझे आप क्षमा करें, मैं यह काम न कर सकूँगा।'
सेठजी ने उसी अविचलित मुस्कान के साथ पूछा, 'क्यों?'
'इसलिए कि यह सरासर जाल है।'
'जाल किसे कहते हैं?'
'किसी हिसाब में उलटफेर करना जाल है।'
'लेकिन उस उलटफेर से एक सौ आदमियों की जीविका बनी रहे, तो इस दशा में भी वह जाल है? कम्पनी की असली हालत कुछ और है, कागजी हालत कुछ और; अगर यह तब्दीली न की गयी, तो तुरन्त कई हजार रुपये नफे के देने पड़ जायँगे और नतीजा यह होगा कि कम्पनी का दिवाला हो जायगा और सारे आदमियों को घर बैठना पड़ेगा। मैं नहीं चाहता कि थोड़े से मालदार हिस्सेदारों के लिए इतने गरीबों का खून किया जाय। परोपकार के लिए कुछ जाल भी करना पड़े, तो वह आत्मा की हत्या नहीं है।'
|