कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 27 प्रेमचन्द की कहानियाँ 27प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्ताइसवाँ भाग
गौरी ने कहा- जाकर कोई दवा लाओ, या किसी डाक्टर को दिखा दो, तीन दिन तो हो गये।
दीनानाथ ने चिन्तित मन से कहा- हाँ, जाता हूँ, लेकिन मुझे बड़ा भय लग रहा है।
'भय की कौन-सी बात है, बेबात की बात मुँह से निकालते हो। आजकल किसे ज्वर नहीं आता?'
'ईश्वर इतना निर्दयी क्यों है?'
'ईश्वर निर्दयी है पापियों के लिए। हमने किसका क्या हर लिया है?'
'ईश्वर पापियों को कभी क्षमा नहीं करता?'
'पापियों को दण्ड न मिले, तो संसार में अनर्थ हो जाय।'
'लेकिन आदमी ऐसे काम भी तो करता है, जो एक दृष्टि से पाप हो सकते हैं, दूसरी दृष्टि से पुण्य।'
'मैं नहीं समझी।'
'मान लो, मेरे झूठ बोलने से किसी की जान बचती हो, तो क्या वह पाप है?'
'मैं तो समझती हूँ, ऐसा झूठ पुण्य है।'
'तो जिस पाप से मनुष्य का कल्याण हो, वह पुण्य है?'
'और क्या।'
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