कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 27 प्रेमचन्द की कहानियाँ 27प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्ताइसवाँ भाग
गाँववालों ने उनके शुभागमन का समाचार सुना, सलाम को हाजिर हुए। वकील साहब ने उन्हें अच्छे-अच्छे कपड़े पहने, स्वाभिमान के साथ कदम मिलाते हुए देखा। उनसे बहुत मुस्कराकर मिले। फसल का हाल-चाल पूछा। बूढ़े हरदास ने एक ऐसे लहजे में जिससे पूरी जिम्मेदारी और चौधरापे की शान टपकती थी, जवाब दिया- हुजूर के कदमों की बरकत से सब चैन है। किसी तरह की तकलीफ नहीं आपकी दी हुई नेमत खाते हैं और आपका जस गाते हैं। हमारे राजा और सरकार जो कुछ हैं, आप हैं और आपके लिए जान तक हाजिर है।
ठाकुर साहब ने तेबर बदलकर कहा- मैं अपनी खुशामद सुनने का आदी नहीं हूँ।
बूढ़े हरदास के माथे पर बल पड़े, अभिमान को चोट लगी। बोला- मुझे भी खुशामद करने की आदत नहीं है।
ठाकुर साहब ने ऐंठकर जवाब दिया- तुम्हें रईसों से बात करने की तमीज नहीं। ताकत की तरह तुम्हारी अक्ल भी बुढ़ापे की भेंट चढ़ गई।
हरदास ने अपने साथियों की तरफ देखा। गुस्से की गर्मी से सब की आँख फैली हुई और धीरज की सर्दी से माथे सिकुड़े हुए थे। बोला- हम आपकी रैयत हैं लेकिन हमको अपनी आबरू प्यारी है और चाहे आप जमींदार को अपना सिर दे दें, आबरू नहीं दे सकते।
हरदास के कई मनचले साथियों ने बुलन्द आवाज में ताईद की- आबरू जान के पीछे है।
ठाकुर साहब के गुस्से की आग भड़क उठी और चेहरा लाल हो गया, और जोर से बोले- तुम लोग जबान सम्हालकर बातें करो वर्ना जिस तरह गले में झोलियाँ लटकाये आये थे उसी तरह निकाल दिये जाओगे। मैं प्रद्युम्न सिंह हूँ, जिसने तुम जैसे कितने ही हेकड़ों को इसी जगह कुचलवा डाला है।
यह कहकर उन्होंने अपने रिसाले के सरदार अर्जुनसिंह को बुलाकर कहा- ठाकुर, अब इन चीटियों के पर निकल आये हैं, कल शाम तक इन लोगों से मेरा गाँव साफ हो जाए।
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