कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 28 प्रेमचन्द की कहानियाँ 28प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अट्ठाइसवाँ भाग
उमा ने मुँह बनाया- उनका स्वभाव तो तुम जानती हो अम्माँ, उन्हें रूपये प्राणों से प्यारे हैं। इन्हें चाहे कालापानी ही हो जाये, वह एक पाई न देंगे।
दयानाथ ने समर्थन किया- मैंने तो उनसे इसका जिक्र ही नहीं किया।
फूलमती ने चारपाई से उठते हुए कहा- चलो, मैं कहती हूँ, देगा कैसे नहीं? रूपये इसी दिन के लिए होते हैं कि गाड़कर रखने के लिए?
उमानाथ ने माता को रोककर कहा- नहीं अम्माँ, उनसे कुछ न कहो। रूपये तो न देंगे, उल्टे और हाय-हाय मचायेंगे। उनको अपनी नौकरी की खैरियत मनानी है, इन्हें घर में रहने भी न देंगे। अफ़सरों में जाकर खबर दे दें तो आश्चर्य नहीं।
फूलमती ने लाचार होकर कहा- तो फिर जमानत का क्या प्रबन्ध करोगे? मेरे पास तो कुछ नहीं है। हाँ, मेरे गहने हैं, इन्हें ले जाओ, कहीं गिरों रखकर जमानत दे दो। और आज से कान पकड़ो कि किसी पत्र में एक शब्द भी न लिखोगे।
दयानाथ कानों पर हाथ रखकर बोला- यह तो नहीं हो सकता अम्माँ, कि तुम्हारे जेवर लेकर मैं अपनी जान बचाऊँ। दस-पाँच साल की कैद ही तो होगी, झेल लूँगा। यहीं बैठा-बैठा क्या कर रहा हूँ!
फूलमती छाती पीटते हुए बोली- कैसी बातें मुँह से निकालते हो बेटा, मेरे जीते-जी तुम्हें कौन गिरफ्तार कर सकता है! उसका मुँह झुलस दूँगी। गहने इसी दिन के लिए हैं या और किसी दिन के लिए! जब तुम्हीं न रहोगे, तो गहने लेकर क्या आग में झोकूँगीं!
उसने पिटारी लाकर उसके सामने रख दी।
दया ने उमा की ओर जैसे फरियाद की आँखों से देखा और बोला- आपकी क्या राय है भाई साहब? इसी मारे मैं कहता था, अम्माँ को बताने की जरूरत नहीं। जेल ही तो हो जाती या और कुछ?
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